फीचर-लेखन और आलेख-लेखन के उदाहरण
◆ 'दक्षिण का कश्मीर-तिरुवनंतपुरम् विषय पर फीचर लिखिए।
दक्षिण का कश्मीर-तिरुवनंतपुरम्
दक्षिण भारत में तिरुवनंतपुरम् को प्राकृतिक सुंदरता के कारण दक्षिण का कश्मीर कहा जाता है। केरल की इस सुंदर राजधानी को इसकी प्राकृतिक सुंदरता, सुनहरे समुद्र तटों और हरे भरे नारियल के पेड़ों के कारण जाना जाता है। आपको भी ले चलें इस बार तिरुवनंतपुरम् की सैर पर. भारत के दक्षिणी छोर पर स्थित तिरुवनंतपुरम् (जिसे पहले त्रिवेंद्रम के नाम से जाना जाता था) को अरब सागर ने घेर रखा है। इसके बारे में कहा जाता है कि पौराणिक योद्धा भगवान परशुराम ने अपना फरसा फेंका था जो कि यहाँ आकर गिरा था। स्थानीय भाषा में त्रिवेंद्रम का अर्थ होता है, कभी न खत्म होने वाला साँप।
एक ओर जहाँ यह शहर अपनी प्रकृतिक सुंदरता और औपनिवेशिक पहचान को बनाए रखने के लिए जाना जाता है, वहीं दूसरी ओर इसे मंदिरों के कारण पहचाना जाता है। ये सारे मंदिर बहुत ही लोकप्रिय हैं। इन सबमें पद्मनाभस्वामी का मंदिर सर्वाधिक प्रसिद्ध है। शाब्दिक अर्थ में पद्मनाभस्वामी का अर्थ है-कमल की सी नाभि वाले भगवान का मदिर। तिरुवनंतपुरम् के पास ही जनार्दन का भी मंदिर है। यहाँ से 25,730 किलोमीटर दूर शिवगिरि का मंदिर है जिसे एक महान समाज सुधारक नारायण गुरु ने स्थापित किया था। उन्हें एक धर्मनिरपेक्ष समाज सुधारक के तौर पर याद किया जाता है। शहर के बीचोंबीच एक पालयम स्थित है जहाँ एक मंदिर, मस्जिद और गिरजाघर को एक साथ देखा जा सकता है।
शहर के महात्मा गाँधी मार्ग पर जाकर कोई भी देख सकता है कि आधुनिक तिरुवनंतपुरम् भी कितना पुराना है। इस इलाके में आज भी ब्रिटिश युग की छाप देखी जा सकती है। इस मार्ग पर दोनों ओर औपनिवेशिक युग की शानदार हमरतें मौजूद हैं पब्लिक लाइब्रेरी, काँलेज आफ फाईन आर्ट्स, विक्टोरिया जुबिली टाउनहाल और सचिवालय इसी मार्ग पर स्थित हैं।
इनके अलावा नेपियर म्यूजियम एक असाधारण इमारत है, जिसकी वास्तु शैली में भारतीय और यूरोपीय तरीकों का मेल साफ दिखता है। यह म्यूजियम (संग्रहालय) काफी बड़े क्षेत्र में फैला है जिसमें श्रीचित्र गैलरी, चिड़ियाघर और वनस्पति उद्यान हैं। पर संग्रहालय में सबसे ज्यादा देखने लायक बात राजा रवि वर्मा के चित्र हैं। राजा रवि वर्मा का मुख्य कार्यकाल वर्ष 1848-1909 के बीच का रहा है। उनके चित्रों की सबसे बड़ी विशेषता हिंदू महाकाव्यों और धर्मग्रंथों पर बनाए गए चित्र हैं।
तिरुवनंतपुरम् कुछ वैज्ञानिक और तकनीकी संस्थानों का भी केंद्र है, जिनमें विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर, सेंटर फॉर अर्थसाइंस स्टडीज और एक ऐसा संग्रहालय है जो कि विज्ञान और प्रोद्योगिकी के सभी पहलुओं से साक्षात्कार कराता है। भारत के अंतरिक्ष अनुसंधान के प्रारंभिक प्रयासों का केंद्र थुबा यहाँ से ज्यादा दूर नहीं है।
शहर का पुराना बाजार क्षेत्र चाला बाजार अभी भी अपनी परंपरागत मोहकता के लिए जाना जाता है। वाणकोर रियासत के दौरान जेवरात, कपड़े की दुकानें, ताजा फलों और सब्जियों की दुकानें और दैनिक उपयोग की वस्तुएँ यहीं एक स्थान पर मिल जाया करती थीं।
तिरुवनंतपुरम् दक्षिण भारत का बड़ा पर्यटन केंद्र है और देश के अन्य किसी शहर में इतनी प्राकृतिक सुंदरता, इतने अधिक मंदिर और सुंदर भवनों का मिलना कठिन है। यहाँ पहुँचना भी मुश्किल नहीं है। केरल राज्य की यह राजधानी जल, थल और वायु मार्ग से देश के सभी क्षेत्रों से जुड़ी है।
'….बिन पानी सब सुन' विषय पर फीचर लिखिए।
'….बिन पानी सब सुन'
देश के सबसे अमीर स्थानीय निकाय बृहनमुबई नगर निगम (बीएमसी) को भी देश की आर्थिक राजधानी के बाशिंदों को पानी देने में हाथ तंग करना पड़ रहा है। बीएमसी पहले ही पानी की आपूर्ति में 15 फीसदी की कटौती कर चुका है और इस हफ्ते इस बात पर फैसला लेगा कि मुंबईवालों को हफ्ते के सभी दिन पानी दिया जाए या किसी एक दिन उससे महरूम रखा जाए। इस साल बारिश की बेरुखी से केवल मुंबई का हाल ही बेहाल नहीं है, बल्कि देश के लगभग सभी प्रमुख शहरों में इस दफे पानी का रोना रोया जा रहा है।
शहरों का आकार जैसे-जैसे बड़ा हो रहा है पानी की उनकी जरूरत भी बढ़ती जा रही है। शहरों के स्थानीय प्रशासनों को पानी की लगातार बढ़ती माँग से तालमेल बिठने के लिए खासी मशक्कत करनी पड़ रही है। दिल्ली, भोपाल, चंडीगढ़, कोलकाता, मुंबई, चेन्नई और बंगलुरू में से केवल बंगलुरू में ही हालात कुछ बेहतर है। इसकी सीधी सी वजह है वर्षा जल संरक्षण के मामले में देश की यह आईटी राजधानी दूसरे शहरों के लिए मिसाल है। वहीं दूसरे शहरों में खास तौर से दिल्ली में बैठे जिम्मेदार लोग बाहरी लोगों के दबाव को बदइंतजामी की वजह बताते हुए ठीकरा उनके सर फोड़ते हैं।
चेन्नई में अभी तक मीटर नहीं है। बारिश के पानी का इस्तेमाल करने के लिए मुंबई को अभी बंदोबस्त करना बाकी है। इन शहरों की नीतियों में भी पारदर्शिता की कमी झलकती है। बड़े शहरों में केवल बंगलुरू में ही 90 फीसदी मीटर काम कर रहे हैं, जबकि राष्ट्रीय राजधानी में केवल आधी आबादी की आपूर्ति ही मीटर के जरिए होती है। बीएमसी के अधिकारी कहते हैं कि निगम पानी की बर्बादी रोकने के लिए कदम उठा रहा है, लेकिन जमीनी स्तर पर कुछ होता नहीं नजर आ रहा है। देश में बड़े पैमाने पर भूजल का दोहन हो रहा है, लेकिन इंदौर को छोड़कर किसी अन्य शहर में भूजल के बेजा इस्तेमाल पर जुर्माना नहीं है। मध्य प्रदेश के इस प्रमुख वाणिज्यिक शहर में इस साल पानी के मामले में आपातकाल जैसे हालात हैं। पूरब के महानगर कोलकाता में भी पानी देने वाली हुगली नदी को नजरअंदाज किया जा रहा है।
आलेख
◆ बचपन की पढ़ाई शिखर की चढ़ाई
एक बच्चा अपने शुरूआती वर्षों के दौरान जो अनुभव पाता है, जो क्षमताएँ विकसित करता है, उसी से दुनिया को लेकर उसकी समझ निर्धारित होती है और यह तय होता है कि वह आगे चलकर कैसा इनसान बनेगा। भारत में कई तरह के स्कूली विकल्प हैं। ऐसे में यह तय करना मुश्किल है कि आमतौर पर एक बच्चे के स्कूल के संबंध में क्या अनुभव रहते हैं, लेकिन मैं अलग अलग तरह के स्कूलों से इतर भारत के स्कूल जाने वाले बच्चों के अनुभवों में एक खास तरह की समानता देखता हूँ। मैं स्कूली अनुभवों के तीन महत्वपूर्ण पहलुओं पर ध्यान दिलाना चाहूँगा, जिनसे यह निर्धारित होता है कि एक बच्चा बड़ा होकर किस तरह का इंसान बनेगा। पहली बात, एक इंसान के तौर पर बच्चे का अनुभव, दूसरी बात, पठन-पाठन की प्रक्रिया, तीसरा स्कूल के दुनिया के साथ जुड़ाव को बच्चा किस तौर पर लेता है। इस आधार पर हम यह देखने की कोशिश करते हैं कि हमारे ज्यादातर स्कूलों की वास्तविकता क्या है।
बच्चा दिन में एक नियत अवधि के दौरान ही स्कूल में रहता है। मोटे तौर पर देखा जाए तो स्कूल एक कंक्रीट की बनी इमारत होती हैं, जहाँ कमरों में डेस्क और बेंच एक के पीछे एक करीने से सजी होती है। हालाँकि कुछ कम सौभाग्यशाली बच्चे ऐसे स्कूलों में भी जाते हैं, जहाँ शायद उन्हें यह बुनियादी व्यवस्था न मिले, लेकिन जगह का आकार और इसका इस्तेमाल वहाँ भी इसी तरीके से होता है।
बच्चा दिन का जितना समय स्कूल में गुजारता है, उसे पीरियड्स में बाँट दिया जाता है। हर पीरियड किसी खास विषय के लिए निर्धारित होता है और हफ्ते में एक-दो पीरियड ऐसे भी हो सकते हैं, जिनमें बच्चा खेलकूद या दूसरी गतिविधियों में हिस्सा ले सकता है। उससे खास तरह के परिधान में स्कूल आने की उम्मीद की जाती है। हर समय उसे यह बताया जाता है वह कहाँ पहुँच सकता है, उससे क्या करने की उम्मीद है और वह इसे कैसे कर सकता है।
किसी कारणवश यदि वह कुछ अलग करने की सोचता है, चाहे वह पड़ोसी लड़के से बातचीत करना चाहता हो या क्लास से बाहर जाना चाहता हो, तो इसके लिए उसे इजाजत लेनी पड़ती है। अलग-अलग स्कूलों की प्रवृत्ति के अनुसार इन नियमों के उल्लंघन पर अध्यापकों द्वारा अलग-अलग सजा निर्धारित होती है। इसके लिए या तो उसको मार पड़ सकती है या जोरदार डाँट पिलाई जा सकती है अथवा और कुछ नहीं तो उसके माता-पिता को एक नोट भेजा जा सकता है। संक्षेप में कहें तो बच्चे के लिए स्कूल एक ऐसी जगह है जहाँ उसे कठोर अनुशासन व नियम-कायों का पालन करना होता है। बच्चा दुनिया के बारे में शुरूआती पाों में से एक यह सबक भी सीखता है कि दुनिया कुछ नियम-कायदों से नियंत्रित होती है। बच्चे से यह उम्मीद की जाती है कि वह बिना कोई सवाल किए इनका पालन करे। यदि वह इनमें से किसी नियम को तोड़े तो सजा के लिए तैयार रहे। आप सफल हैं यदि इन सभी नियमों को बिना किसी परेशानी से पालन कर सकते हैं।
छात्र स्कूल प्रबंधन द्वारा तय की गई किताबों के खास सेट का इस्तेमाल करता है। किताबों में वे तथ्य और आँकड़े होते हैं, जिनके बारे में अध्यापक बच्चों को अवगत कराता है। जरूरी नहीं कि सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में वे सवाल भी शामिल हों जो दिए गए तथ्यों से परे हों और ऐसे प्रश्न भी उस विषय के दायरे में ही सीमित होते हैं, जिन पर चर्चा की जा रही है। बच्चा क्या सीखता है, इसकी परिभाषा उपकरणों व तकनीकों में महारत हासिल करने व तो और आँकड़ों को याद रखने तक ही सीमित है। यह अध्यापक और टाइमटेबल से तय होता है कि निर्धारित समय में बच्चा क्या सीखता है और अच्छा विद्यार्थी होने का मतलब है कि आप में ऐसी क्षमता हो जिससे आप ज्यादा से ज्यादा तथ्य और जानकारियाँ हासिल कर सकें।
◆भारतीय कृषि की चुनौती
ऐसे समय में जब खाद्य पदार्थों की कीमतें आसमान छू रही हैं और दुनिया में भुखमरी अपने पैर पसार रही है, जलवायु परिवर्तन से संबंधित विशेषज्ञ आगाह कर रहे हैं कि आने वाले वक्त में हमें और भी भयावह स्थिति का सामना करना पडेगा। दिनों-दिन बढते वैश्विक तापमान की वजह से भारत की कृषि क्षमता में लगातार गिरावट आती जा रही है। एक अनुमान के मुताबिक इस क्षमता में 40 फीसदी तक की कमी हो सकती है। (ग्लोबल वार्मिग एंड एग्रीकल्चर, विलियम क्लाइन)। कृषि के लिए पानी और ऊर्जा या बिजली दोनों ही बहुत अहम तत्व हैं, लेकिन बढ़ते तापमान की वजह से दोनों की उपलब्धता मुश्किल होती जा रही है।
तापमान बढ़ने के साथ ही देश के एक बड़े हिस्से में सूखे और जल संकट की समस्या भी बद से बदतर होती जा रही है। एक तरफ वैश्विक तापमान से निपटने के लिए जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल पर ब्रेक लगाने की जरूरत महसूस की जा रही है। वहीं दूसरी ओर कृषि कार्य के लिए पानी की आपूर्ति के वास्ते बिजली की आवश्यकता भी दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।
खाद्य सुरक्षा, पानी और बिजली के बीच यह संबंध जलवायु परिवर्तन की वजह से कहीं ज्यादा उभरकर सामने आया है। एक अनुमान के मुताबिक अगले दशक में भारतीय कृषि की बिजली की जरूरत बढ़कर दोगुनी हो जाने की संभावना है। यदि निकट भविष्य में भारत को कार्बन उत्सर्जन में कटौती के समझौते को स्वीकारने के लिए बाध्य होना पड़ता है तो सबसे बड़ा सवाल यही उठेगा कि फिर आखिर भारतीय कृषि की यह माँग कैसे पूरी की जा सकेगी।
इसका जवाब कोपेनहेगन में नहीं, बल्कि कृषि में पानी और बिजली के इस्तेमाल को युक्तिसंगत बनाने में निहित है। कृषि में बिजली का बढ़ता इस्तेमाल इस तथ्य से साफ है कि अब किसान पाँच हार्सपॉवर के पंपों के बजाय 15 से 20 हार्सपॉवर के सबमसिबल पंपों का इस्तेमाल करने लगे हैं। पाँच हार्सपॉवर के पंप 1970 के दशक में काफी प्रचलन में थे। इससे राज्य सरकारें अत्यधिक दबाव में हैं, क्योंकि कृषि क्षेत्र की बिजली संबंधी जरूरतों की पूर्ति उसे ही करनी होगी। जमीन के भीतर से पानी खींचने के लिए बिजली की अधिक जरूरत पड़ती है। पंजाब में बिजली की जितनी खपत होती है, उसका एक तिहाई हिस्सा अकेले पानी को पंप करने में ही खर्च हो जाता है।
हरियाणा में यह आँकड़ा 41 और आंध्र प्रदेश में 36 फीसदी है। हालाँकि सरकार वृहद सिंचाई परियोजनाओं और नहरों पर करोड़ों रुपये खर्च कर रही है, लेकिन तथ्य यह है कि नहरों के पानी का महज 25 से 45 फीसदी ही इस्तेमाल हो पाता है, जबकि कुओं और नलकूपों का 70 से 80 फीसदी तक पानी इस्तेमाल कर लिया जाता है। भूजल से कृषि उत्पादकता नहरी सिंचाई से कृषि उत्पादकता की तुलना में डेढ़ से दो गुनी ज्यादा है। यही वजह है कि निजी क्षेत्र भूजल में ही निवेश को प्राथमिकता दे रहा है।
देश के सिंचाई साधनों में 60 फीसदी हिस्सा भूजल स्रोतों का है जिनके विकास पर निजी क्षेत्र 2.2 लाख करोड़ रुपये खर्च कर रहा है, लेकिन भूजल से सिंचाई तब तक टिकाऊ नहीं हैं, जब तक कि जल संरक्षण के लिए उतनी ही राशि खर्च नहीं की जाती जितनी कि भूमिगत जल स्रोतों के विकास पर खर्च की जा रही है। उन क्षेत्रों में जल प्रबंधन बहुत जरूरी है जो सिंचाई के लिए पूरी तरह से भूमिगत पानी पर निर्भर है, ताकि वहाँ भूजल के स्तर के साथ संतुलन बनाया जा सके, लेकिन हमारे नीति निर्माताओं ने अब तक इस पर ध्यान नहीं दिया है। अभी पूरा ध्यान नहरी सिंचाई पर ही दिया जा रहा है। भारत में भूमिगत जल का भौगोलिक बँटवारा असमान है और इसका इस्तेमाल भी बेहद गलत ढंग से किया जा रहा है। देश के 70 फीसदी प्रखंडों में भूजल का स्तर संतोषजनक है, लेकिन उन 30 फीसदी प्रखंडों में पानी का अधिकतम दोहन किया जा रहा है, जहाँ पहले से ही पानी का संकट है।
भूजल में कमी की प्रमुख वजह नलकूपों से सिंचाई है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण पंजाब है। वहाँ भूजल का स्तर 50 से 100 फीट तक नीचे गिर चुका है, लेकिन इसके बावजूद वह अनाज के रूप में 21 अरब क्यूबिक मीटर पानी का निर्यात कर रहा है। वहाँ भूजल का दोहन 145 फीसदी तक हो रहा है। इसी तरह उत्तर प्रदेश भी अनाज के रूप में 21 अरब क्यूबिक मीटर पानी का निर्यात कर रहा है, लेकिन भूजल का दोहन 70 फीसदी तक सीमित है। हरियाणा 14 अरब क्यूबिक मीटर पानी का निर्यात कर रहा है और भूजल दोहन का आंकड़ा 109 फीसदी है। कुछ राज्यों ने जल प्रबंधन की दिशा में कई कदम उठाए हैं।
महाराष्ट्र ने 'वाटर आडिट' करने की व्यवस्था शुरू की है। पंजाब और हरियाणा अब चावल की रोपाई मशीन से करने लगे हैं, ताकि ग्रीष्मकाल में सबसे गर्म दिनों से बचा जा सके। जल-संरक्षण आज के समय की सबसे महती जरूरत है। भारत में करीब एक करोड़ कुएँ हैं, लेकिन उनमें से 35 फीसदी निष्क्रिय हैं। भूमिगत जलस्रोतों को रिचार्ज करके इन कुओं को आसानी से बहाल किया जा सकता है। देश के कई इलाकों में लोग ऐसा करके दिखा भी चुके हैं, लेकिन लगता है हमारे नौकरशाह अब भी इससे सहमत नहीं हैं।
हमारी खान-पान की आदतों में बदलाव भी जल संरक्षण में अहम भूमिका निभा सकता है। एक टन गोमांस के लिए 16726 क्यूबिक मीटर पानी की जरूरत होती है, जबकि एक टन मक्के के उत्पादन में महज 1020 क्यूबिक मीटर पानी ही चाहिए। एक टन आलू के उत्पादन मेंमहज 133 क्यूबिक मीटर पानी की जरूरत होती है, जबकि इतने ही पनीर या चीज के उत्पादन में 40 गुना अधिक पानी की आवश्यकता होगी। खाद्यान्न उत्पादन में गिरावट के भय को भुनाने का प्रयास करते हुए बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियों ऐसे बीजों के विकास का दावा कर रही हैं जिनसे सूखे में भी उत्पादन लिया जा सकेगा, लेकिन जेनेटिकली मॉडीफाइंड बीजों को लेकर ऐसे दावे प्रमाणिकता से कोसों दूर हैं किसान अब फिर से बीजों की पारंपरिक किस्मों की ओर लौट रहे हैं जिन्हें बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ काफी प्रयासों के बावजूद मिटा नहीं सकी।
Love you sir it's help me a lot .🙏🙏
ReplyDelete♥️🤍💜💛💚
ReplyDeleteThanks so much
ReplyDelete.....
Thank you so much sir
ReplyDeletekuch bhi daal rahe ho
ReplyDeleteKya Kuch Nhi😂
DeleteThnx a lot sir
ReplyDeleteYou help me so much
Mujhe ficher or alekh ka f ya a bhi nhi aata tha
Bhojaram mayal
DeleteYe bht bdaa h according to 3 marks...
DeleteThank you sir
ReplyDeleteThank you sir
ReplyDeleteNice sir.
ReplyDeleteThank you sir ji 🔥❤️
ReplyDeleteThank you sir har baar aap hi kaam aate ho
ReplyDeleteThanks a lot sir....
ReplyDeleteMadrchood ya kya h
ReplyDeletetare maa ki chut
DeleteThanks
ReplyDeleteThank you so much sir.
ReplyDeleteSir ye tho bahut Bada hai
ReplyDelete👍 Dhanyavaad sir kaafi madad mili isses
ReplyDeleteThanks sir I liked 👍
ReplyDeleteTHANK YOU 😊 SIR
ReplyDeleteTHANK YOU SOR
ReplyDeleteThank u sir 🙏🙏🙂
ReplyDeleteI want to write feature about Sachin Tendulkar please help me
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