Gram Shree Class 9 | Class 9 Hindi gram shree | ग्राम श्री class 9 | class 9 hindi ग्राम श्री | सुमित्रानंदन पंत ग्राम श्री
भाव (सारांश)
'ग्रामश्री' में प्राकृतिक सौंदर्य का मनोरम चित्रण हुआ है। खेतों में दूर-दूर तक फैली हरियाली, धूप और नीले आकाश का सौंदर्य मनोहारी है। जौ, गेहूँ की बालियाँ देखकर वसुंधरा रोमांचित हो उठी है। अरहर, सन आदि की स्वर्णिम फलियों की करधनियाँ बहुत आकर्षक लग रही हैं। पीले रंग के फूलों वाली सरसों की गंध चारों ओर फैली हुई है। मटर की भरी फलियों और रंगीन फूलों पर मंडराती तितलियों को देखकर मन मुग्ध हो गया है। बौराए आम, पत्ते गिराते ढाक-पीपल, महकते कटहल, जामुन, झरबेरी, फूलते आड़, नींबू, अनार, बैंगन आदि सहज ही मन को मोहित कर रहे हैं। अमरूद एवं बेर पक गए हैं, आँवले के फल डालों पर लगे हैं। पालक लहलहा रहा है, धनिया महक रहा है और लौकी, सेम की बेल चारों ओर फैली है। टमाटर सुर्ख लाल हो गए हैं, और मिर्च फूल गई हैं गंगातट की बालू पर तरबूजे की खेती मनोरम लग रही है, बगुले अपने बाल संवार रहे हैं। चकवा जल में तैर रहे हैं। जाड़े की अंधेरी रात में ग्रामश्री अलसायी-सी स्वप्नों में खोई है। समग्र प्राकृतिक शोभा दर्शक के मन को हर लेती है।
पद्यांशों की व्याख्या
पद्यांश
(1) फैली खेतों में दूर तलक
मखमल की कोमल हरियाली,
लिपटी जिससे रवि की किरणें
चाँदी की सी उजली जाली !
तिनकों के हरे हरे तन पर
हिल हरित रुधिर है रहा झलक,
श्यामल भू तल पर झुका हुआ
नभ का चिर निर्मल नील फलक !
संदर्भ - प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के 'ग्रामश्री' पाठ से लिया गया है। इसके रचयिता सुमित्रानंदन पंत हैं।
प्रसंग - यहाँ हरी-भरी शस्यश्यामला धरती के भव्य सौंदर्य का अंकन हुआ है।
व्याख्या - खेतों में दूर-दूर तक मखमल के समान मुलायम हरियाली फैली हुई है। मखमल जैसी उस हरियाली में चाँदी की तरह सफेद जाली की तरह सूर्य की किरणें लिपटी हैं। भाव यह है कि जिस तरह मखमल के वस्त्रों में चाँदी की जाली जड़ी होती है उसी तरह खेतों में फैली हरियाली से सूरज की किरणें लिपटी हुई जान पड़ती हैं। फसलों के हरे तनों में हरा रक्त झलमला रहा है। धनधान्य से सम्पन्न पृथ्वी के घरातल पर आकाश का स्वच्छ नीला फलक झुका हुआ है। आशय यह कि फसलों से भरी धरती के कारण पृथ्वी और आकाश मिले हुए से प्रतीत हो रहे हैं।
विशेष - (1) धनधान्य से सम्पन्न वसुंधरा की शोभा का भव्य वर्णन हुआ है।
(2) कोमलकांत पदावली युक्त सुललित खड़ी बोली का प्रयोग हुआ है।
(3) उपमा, अनुप्रास तथा उत्प्रेक्षा ।
पद्यांश
(2) रोमांचित सी लगती वसुधा
आई जौ गेहूँ में बाली,
अरहर सनई की सोने की
किंकिणियाँ हैं शोभाशाली ?
उड़ती भीनी तैलाक्त गंध
फूली सरसों पीली पीली,
लो, हरित धरा से झांक रही
नीलम की कलि, तीसी नीली।
संदर्भ - प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के 'ग्रामश्री' पाठ से लिया गया है। इसके रचयिता सुमित्रानंदन पंत हैं।
प्रसंग - इसमें पुष्पित और फलित वसुंधरा की शोभा वर्णित है।
व्याख्या - जौ और गेहूँ पर बालियाँ आ गई हैं इसलिए पृथ्वी रोमांचित सी प्रतीत हो रही है। अरहर और सनई की फलियों पर स्वर्णिम करधनियाँ शोभायमान हैं। वातावरण में सभी तरफ तैलमय गंध फैली है क्योकि सरसों के पीले-पीले फूल खिल रहे हैं। इधर हरी-भरी धरती से नीलम रत्न जैसी अलसी की कली ऊपर की ओर झाँक रही है। आशय यह है कि थोड़ी सी दिखने वाली अलसी की कली नीलम रत्न सी कौंध रही है।
विशेष - (1) फल, फूलों से सम्पन्न धरती की सुन्दरता का अंकन किया गया है।
(2) लालित्यमयी कोमलकांत पदावली युक्त खड़ी बोली का प्रयोग हुआ है।
(3) पुनरुक्ति- प्रकाश, उपमा एवं अनुप्रास अलंकार।
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पद्यांश
(3) अब रजत स्वर्ण मंजरियों से
लद गई आम्र तरु की डाली,
झर रहे ढाक, पीपल के दल,
हो उठी कोकिला मतवाली!
महके कटहल, मुकुलित जामुन,
जंगल में झरबेरी झूली, फूले आडू,
नींबू, दाड़िम, आलू, गोभी, बैंगन, मूली !
संदर्भ - प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के 'ग्रामश्री' पाठ से लिया गया है। इसके रचयिता सुमित्रानंदन पंत हैं।
प्रसंग - पुष्पित और पल्लवित प्रकृति की शोभा का वर्णन किया गया है।
व्याख्या - कवि कहते हैं कि चाँदी और सोने की कांति वाले बौर से आम के पेड़ों की डालियाँ लद गई हैं। खक और पीपल के वृक्षों से पत्ते झड़ रहे हैं। इस अनोखे सौन्दर्य को देखकर कोयल मदमस्त हो उठी है। कटहल की गंध चारों ओर फैल गई है। जामुन पर भी अधखिले फूल सुशोभित हैं। जंगल में सभी तरफ झरबेरी पर बेर लटक रहे हैं आडू, नींबू, अनार, आलू, गोभी, बैंगन, मूली आदि फूल उठे हैं।
विशेष - (1) प्रकृति का मादक चित्रण हुआ है।
(2) भावानुरूप सुकुमार पदावली से युक्त खड़ी बोली का प्रयोग हुआ है।
(3) अनुप्रास अलंकार एवं पदमैत्री का सौन्दर्य दर्शनीय है।
पद्यांश
(4) पीले मीठे अमरूदों में
अब लाल लाल चित्तियाँ पड़ीं,
पक गए सुनहले मधुर बेर,
अंबली से तरु की डाल जड़ी !
लहलह पालक, महमह धनिया,
लौकीऔ सेमफली, फैलीं मखमली
टमाटर हुए लाल, मिरचों की बड़ी हरी थैली !
संदर्भ - प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के 'ग्रामश्री' पाठ से लिया गया है। इसके रचयिता सुमित्रानंदन पंत हैं।
प्रसंग - फल और सब्जियों की गंध आदि से परिपूर्ण पर्वतीय गाँव की शोभा का अंकन हुआ है।
व्याख्या - पीले रंग वाले मीठे अमरूदों में पूरी तरह पकने के कारण लाल चित्तियाँ पढ़ गई हैं। सुनहरे रंग के मीठे बेर पक गए हैं और छोटे-छोटे आंवलों से पेड़ की डालियाँ लद गई हैं। पालक लहलहा रहा है और धनिये की महक चारों ओर वातावरण को सुगन्धित कर रही है। लौकी तथा सेम की बेल इधर-उधर फैल गई हैं। मखमल जैसे टमाटर पूरी तरह पककर लाल हो गए हैं और मिरचों की हरी थैलियाँ पूरी तरह बड़ी हो गई हैं।
विशेष - (1) फलित तथा गंधायमान प्राकृतिक वातावरण का मनोरम चित्रण हुआ है।
(2) शुद्ध, सरल तथा सुबोध खड़ी बोली का प्रयोग हुआ है।
(3) पुनरुक्तिप्रकाश, अनुप्रास अलंकार।
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पद्यांश
(5) बालू के साँपों से अंकित
गंगा की सतरंगी रेती,
सुन्दर लगती सरपट छाई
कलंगी सवारते हैं कोई,
तट पर तरबूजों की खेती !
अँगुली की कंघी से बगुले
तिरते जल में सुरखाय पुलिन पर,
मगरौती रहती सोई !
संदर्भ - प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के 'ग्रामश्री' पाठ से लिया गया है। इसके रचयिता सुमित्रानंदन पंत हैं।
प्रसंग - इसमें गंगा के किनारे की सुन्दरता का अंकन किया गया है।
व्याख्या - कवि कहते हैं कि पानी की लहरों से बनने वाले बालू के साँपों से गंगा के किनारे चिह्नित है। उन किनारों पर खरपतवार से ढकी हुई तरबूजे की खेती अत्यन्त सुन्दर लग रही है। वहाँ बगुले अपनी हाथों की कंघी से अपनी कलंगी सँभाल रहे हैं और गंगाजल में चक्रवाक पक्षी तैरते हुए दिख रहे हैं और गंगा के किनारों पर नाव के आगे के भाग लेटे हैं।
विशेष - (1) गंगा तट की शोभा का मनोहारी चित्रण हुआ है।
(2) इसकी चित्रोपमता - दर्शनीय है।
(3) सहज, स्वाभाविक खड़ी बोली का प्रयोग किया गया है।
(4) रूपक, अनुप्रास अलंकारों की छटा अवलोकनीय है।
पद्यांश
(6) हँसमुख हरियाली हिम-आतप
सुख से अलसाए से सोए,
भीगी अँधियाली में निशि की
तारक स्वप्नों में से खोए
मरकत डिब्बे सा खुला ग्राम
जिस पर नीलम नभ आच्छादन निरूपम
हिमांत में स्निग्ध शान्त निज शोभा से हरता जन मन !
संदर्भ - प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के 'ग्रामश्री' पाठ से लिया गया है। इसके रचयिता सुमित्रानंदन पंत हैं।
प्रसंग - इसमें जाड़े के अंतिम दिनों की रात में सोए हुए गाँव की शोभा का चित्रण हुआ है।
व्याख्या - कवि कहते हैं कि मुस्कराती सी हरियाली तथा जाड़े के अन्तिम दिनों को गर्माहट में गाँववासी सुखद नींद में डूबे हैं वे ओस से भीगी अंधेरी रात्रि में नक्षत्रलोक के स्वप्नों में खोए हुए हैं। अर्थात् सभी ग्रामवासी गहरी निद्रा का आनन्द ले रहे हैं। पन्ने के खुले हुए डिब्बे जैसे खुले खुले से इस गाँव का नीले आकाश रूपी नीलम रत्न का ढक्कन है। पाले के अन्तिम समय में ओस से तर और शान्त यह अद्भुत गाँव हर आदमी का मन हर रहा है। अर्थात् गाँव का सौंदर्य मनमोहक है।
विशेष - (1) अंधेरी रात्रि में निद्राग्रस्त गाँव के सौन्दर्य का मनोहारी अंकन हुआ है।
(2) शुद्ध साहित्यिक भाषा का प्रयोग किया गया है।
(3) उपमा, रूपक, अलंकारों का सौंदर्य अवलोकनीय है।
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