Sakhiyan aur Sabad Class 9 Solutions Pathit Kavyansh साखियाँ एवं सबद पठित काव्यांश / पद्यांश

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Sakhiyan aur Sabad Class 9 Solutions Pathit Kavyansh साखियाँ एवं सबद पठित काव्यांश / पद्यांश


साखियाँ 

निम्नलिखित काव्यांशों को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए-

1. मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं।

मुकुताफल मुकता चुगैं, अब उड़ि अनत न जाहिं।


(क) कवि की दृष्टि में ‘मान सरोवर' और 'सुभर जल' का क्या गहन अर्थ है?
(ख) कवि ने हंस किसे माना है?
(ग) हंस कहीं भी उड़ कर क्यों नहीं जाना चाहते?
(घ) साखी में निहित काव्य-सौंदर्य प्रतिपादित कीजिए।
(ङ) 'मुकताफल चुगैं' से क्या तात्पर्य है?
(च) इस साखी का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।

उत्तर-(क) कवि की दृष्टि में मानसरोवर किसी भक्त का वह मन है जिस में भक्ति रूपी जल पूरी तरह से भरा हुआ है। 'सुभर जल' से यह प्रकट होता है कि भक्त के हृदय में भक्ति भावों के अतिरिक्त किसी प्रकार के विकारी भाव नहीं हैं। वह भक्ति-भावों से इतना अधिक भरा हुआ है कि सांसारिक विषय-वासनाओं के वहाँ समाने का कोई स्थान ही नहीं है।

(ख) कवि ने भक्तों, संतों और साधुओं को हंस माना है जो भक्ति-भाव में डूबे रहते हैं।

(ग) भक्त रूपी हँस मुक्ति रूपी मोतियों को चुगने के कारण कहीं भी उड़ कर नहीं जाना चाहते।

(घ) कबीर के द्वारा रचित साखी में दोहा छंद है जिस में स्वरमैत्री का सहज प्रयोग किया गया है जिस कारण लयात्मकता की सृष्टि हुई है। अनुप्रास और रूपक का सहज स्वाभाविक प्रयोग सराहनीय है। लक्षणा शब्दशक्ति के प्रयोग ने कवि के कथन को गंभीरता प्रदान की है। शांत रस विद्यमान है। तद्भव शब्दों की अधिकता है।

(ङ) इस कथन का तात्पर्य है कि जीवात्माएँ सांसारिकता से मुक्त होकर ईश्वर के नामरूपी मोती चुग रही हैं। वे प्रभु भक्ति में लीन हैं।

(च) कवि ने ईश्वर के ध्यान में लीन भक्तों की मानसिक दशा का वर्णन किया है कि वे अपने हृदय में मुक्ति का आनंददायी फल अनुभव कर परम सुख और आत्मिक शुद्धता को अनुभव कर रहे हैं। वे पवित्रता से परिपूर्ण अपने मन को कहीं और नहीं लगाना चाहते।

2. प्रेमी ढूँढ़त मैं फिरौं, प्रेमी मिले न कोइ।

प्रेमी का प्रेमी मिलै, सब विष अमृत होइ॥


(क) कबीर ने प्रेमी किसे कहा है?
(ख) प्रेमी को अपने-सा प्रेमी क्यों नहीं मिलता?
(ग) प्रेमी को प्रेमी मिल जाने से सारा विष अमृत क्यों हो जाता है?
(घ) साखी में निहित काव्य-सौंदर्य प्रतिपादित कीजिए।
(ङ) साखी का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
(च) 'मैं' में छिपा अर्थ किसके लिए है?
(छ) 'विष' और 'अमृत' की प्रतीकात्मकता स्पष्ट कीजिए।
(ज) विष कब अमृत में बदल जाता है?

उत्तर-(क) कबीर ने परमात्मा के भक्त को प्रेमी कहा है।

(ख) परमात्मा का भक्त अपने जैसे भक्त को पाना चाहता है। परन्तु वह सरलता से मिलता नहीं क्योंकि संसार के अधिकांश लोग तो दूर रहकर विषय-वासनाओं में डूबे रहते हैं।

(ग) ईश्वर प्रेमी को ईश्वर प्रेमी मिल जाने से सारा विष अमृत हो जाता है क्योंकि उन्हें भक्ति रूपी अमृत की प्राप्ति की ही इच्छा होती है, विषय-वासनाओं की नहीं।

(घ) कबीर ने सीधी-साधी सरल भाषा में भक्ति-रस के महत्त्व को प्रतिपादित किया है। 'प्रेमी' में लाक्षणिकता विद्यमान है। तत्सम और तद्भव शब्दों का समन्वित प्रयोग किया गया है। प्रसाद गुण तथा शांत रस विद्यमान हैं। दोहा छंद का प्रयोग है। स्वरमैत्री ने गेयता का गुण प्रदान किया है।

(ङ) कबीर ने प्रभु-भक्त का साथ प्राप्त करना चाहा है पर वह प्रयत्न कर के भी ऐसा करने में सफल नहीं हो पाया। वह ईश्वर प्रेमी को प्राप्त न करने के कारण परेशान है।

(च) 'मैं' में छिपा अर्थ किसी भी ईश्वर-भक्त को प्रकट करता है। वह केवल कवि की ओर संकेत नहीं करता।

(छ) “विष' मानव मन में छिपे पापों, बुरी भावनाओं, बुराइयों, वासनाओं आदि का प्रतीक है और अमृत पुण्य, मुक्ति, सद्भावना, भक्ति आदि को प्रकट करता है।

(ज) ईश्वर भक्तों के परस्पर मिल जाने से मन के पाप मिट जाते हैं और तब विष अमृत में बदल जाता है।

3. हस्ती चढ़िए ज्ञान को, सहज दुलीचा डारि।

स्वान रूप संसार है, भूँकन दे झख मारि॥


(क) कवि ने संसार के व्यवहार को कैसा माना है?
(ख) कवि की दृष्टि में ज्ञान का रूप कैसा है?
(ग) 'सहज दुलीचा' क्या है?
(घ) साखी में निहित काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
(ङ) 'स्वान रूप संसार है'-ऐसा क्यों कहा गया है? हमें क्या करना चाहिए?
(च) कवि ने मानव को क्या प्रेरणा दी है?
(छ) कवि ने किस ज्ञान को श्रेष्ठ माना है?
(ज) साखी का भाव स्पष्ट कीजिए।

उत्तर-(क) कवि ने संसार के उस व्यवहार को अनुचित माना है जो व्यर्थ ही दूसरों की आलोचना करता रहता है। वह तो अच्छे बुरे के बीच भेद भी नहीं कर पाता।

(ख) कवि की दृष्टि में ज्ञान हाथी के समान सबल है जो अपना मार्ग खुद बना सकता है जिसे किसी की परवाह नहीं होती।

(ग) 'सहज दुलीचा' ईश्वर के नाम की स्व स्वरूप स्थिति है जो भक्त मन को ईश्वर की ओर बढ़ाती है।

(घ) कबीर ने भक्ति के मार्ग में आगे बढ़ने वालों को प्रेरणा दी है कि वे व्यर्थ की आलोचनाओं की परवाह न करें। दोहा छंद में तत्सम और तद्भव शब्दों का सहज प्रयोग किया गया है। लाक्षणिकता ने भाव गहनता को प्रकट किया है। स्वर मैत्री ने गेयता का गुण उत्पन्न किया है। शांत रस का प्रयोग है।

(ङ) कवि ने इस संसार को स्वान रूप कहा है क्योंकि इस संसार में सभी लोग अपने आप को ठीक मानते हुए दूसरों को बुरा-भला कहते ही हैं। वे उनकी आलोचना करते ही रहते हैं। हमें दूसरों के द्वारा की जाने वाली निंदा उपहास की परवाह नहीं करनी चाहिए। अपने मन में आए भक्ति और साधना के भावों पर स्थिर रह कर कर्म करना चाहिए।

(च) कवि ने मानव को प्रेरणा दी है कि वह लोकनिंदा की परवाह न करे और ईश्वर के नाम में डूबा रहे।

(छ) कवि ने साधना से प्राप्त उस ज्ञान को श्रेष्ठ माना है जो मानव स्वयं प्राप्त करता है।

(ज) कवि ने प्रभु भक्तों को अपनी भक्ति में डूबे रहने की सलाह देते हुए निंदकों और आलोचकों को बुरा माना है।

4. पखापखी के कारनै, सब जग रहा भुलान।

निरपख होइ के हरि भजै, सोई संत सुजान॥


(क)'पखापखी' क्या है?
(ख) सारा संसार किसे भुला रहा है?
(ग) संत-सुजान कौन हो सकता है?
(घ) साखी में निहित काव्य-सौंदर्य प्रतिपादित कीजिए।
(ङ) सच्चा संत कौन है?
(च) ईश्वर के नाम-स्मरण के लिए किस प्रकार की भावना होनी चाहिए?
(छ) संसार किस कारण से भूला हुआ है?

उत्तर-(क) मानव मन में छिपी तेरे-मेरे, पक्ष-विपक्ष और परस्पर लड़ाई-झगड़े का भाव ही पखापखी है।

(ख) सांसारिकता में उलझ कर यह सारा संसार ईश्वर के नाम और भक्ति-भाव को भुला रहा है।

(ग) संत-सुजान वही हो सकता है जो आपसी भेद-भाव को त्याग कर परमात्मा के नाम के प्रति स्वयं को लगा दे।

(घ) कबीर ने दोहा छंद का प्रयोग करते हुए उपदेशात्मक स्वर में प्रेरणा दी है कि मानव को आपसी लड़ाई-झगड़े और भेद-भाव को मिटाकर ईश्वर के नाम की ओर उन्मुख होना चाहिए। जो व्यक्ति ऐसा करता है वही 'संत-सुजान' कहलाने के योग्य है। तद्भव शब्दावली का सहज प्रयोग किया गया है। अनुप्रास अलंकार का सहज-स्वाभाविक प्रयोग सराहनीय है। प्रसाद गुण और शांत रस विद्यमान है। स्वरमैत्री ने लयात्मकता का गुण प्रदान किया है।

(ङ) सच्चा संत वह है जो किसी वैर-विरोध, पक्ष-विपक्ष की परवाह किए बिना ईश्वर की भक्ति में डूबा रहता है।

(च) ईश्वर के नाम-स्मरण के लिए मानव को निरपेक्ष होना चाहिए। उसे किसी के विरोध-समर्थन, निंदा-प्रशंसा आदि की परवाह नहीं करनी चाहिए।

(छ) यह संसार आपसी लड़ाई-झगड़े, तर्क-वितर्क आदि के कारण ईश्वर को भूला हुआ है।

5. हिंदू मुआ राम कहि, मुसलमान खुदाइ।

कहै कबीर सो जीवता, जो दुहुँ के निकट न जाइ।


(क) हिंदू और मुसलमान ईश्वर को किस-किस नाम से पुकारते हैं?
(ख) कवि के अनुसार कौन-सा मानव सावधान है?
(ग) कवि ने किस सार्वभौमिक सत्य को प्रकट करने का प्रयत्न किया है?
(घ) साखी में निहित काव्य-सौंदर्य प्रतिपादित कीजिए।
(अ) कवि ने हिंदू-मुसलमान दोनों को मरा हुआ क्यों माना है?
(च) कवि के अनुसार जीवित कौन है?
(छ) कवि मनुष्य से क्या अपेक्षा करता है?

उत्तर-(क) हिंदू ईश्वर को राम नाम से और मुसलमान खुदा नाम से पुकारते हैं।

(ख) कवि के अनुसार वह मानव सावधान है जो हिंदुओं और मुसलमानों के राम और अल्लाह शब्दों को दुराग्रहपूर्वक स्वीकार नहीं करता।

(ग) कवि ने इस सार्वभौमिक सत्य को प्रकट करने का प्रयत्न किया है कि परमात्मा तो हर प्राणी के हृदय में बसता है। वह किसी धर्म विशेष के अधिकार में नहीं है।

(घ) कबीर ने माना है कि परमात्मा घट-घट में समाया हुआ है। वह केवल 'राम' या 'अल्लाह' नामों में छिपा हुआ नहीं है। उसे तो हर कोई पा सकता है। अभिधा शब्द शक्ति के प्रयोग ने कवि के कथन को सरलता और सहजता प्रदान की है। प्रसाद गुण और शांत रस विद्यमान है। अनुप्रास अलंकार का सहज प्रयोग है। गेयता का गुण विद्यमान है।

(ङ) कवि हिंदू-मुसलमान दोनों को मरा हुआ माना है क्योंकि वे दोनों आपसी भेद-भाव में उलझकर ईश्वर को भूल गए हैं।

(च) कवि के अनुसार जीवित केवल वह हैं जो धार्मिक भेद-भावों से दूर रह कर ईश्वर का नाम लेते हैं।

(छ) कवि मनुष्य से अपेक्षा करता है वह जात-पात को भुला कर ईश्वर के नाम में डूबा रहे।

6. काबा फिरि कासी भया, रामहिं भया रहीम।

मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीम॥


(क) कवि ने 'काबा', 'कासी', 'राम', 'रहीम' शब्दों के माध्यम से क्या प्रकट करना चाहा है?
(ख) 'मोट चून मैदा भया' में निहित अर्थ स्पष्ट कीजिए।
(ग) कबीर ने किस भाव का विरोध किया है?
(घ) साखी में निहित काव्य-सौंदर्य को प्रतिपादित कीजिए।
(ङ) कबीर ने क्या प्रेरणा दी है?
(च) काबा कासी कैसे हो गया?

उत्तर-(क) कवि ने 'काबा' और 'कासी' के माध्यम से प्रकट करना चाहा है कि परमात्मा किसी विशेष धार्मिक स्थल पर प्राप्त नहीं होता बल्कि वह तो सभी जगह ही मिलता है। 'राम' और 'रहीम' शब्दों के माध्यम से यह कहना चाहा है कि परमात्मा तो प्रत्येक धर्म में एक ही है। उसके नाम बदलने से वह नहीं बदल जाता। उसे किसी भी नाम से पुकारा जा सकता है।

(ख) जिस प्रकार मोटा आटा ही मैदा में बदल जाता है उसी प्रकार विभिन्न धर्मों को मानने वाले ईश्वर को भिन्न नामों से पुकार लेते हैं और उस के स्वरूप में भेद मानते हैं पर वास्तव में उसमें कोई भेद नहीं है। ईश्वर तो एक ही है।

(ग) कबीर ने इस भाव का विरोध किया है कि ईश्वर के रूप, नाम अनेक हैं ; स्वरूप अलग हैं और वह भिन्न धर्मों को मानने वालों के धर्म-स्थलों पर रहता है। वास्तव में ईश्वर एक ही है। उसमें कोई अंतर नहीं है।

(घ) कबीर मानते हैं कि परमात्मा सर्वत्र है। हिंदू-मुसलमान चाहे उसे अलग-अलग नाम से पुकारते हैं पर वास्तव में उस में कोई अंतर नहीं है। अनुप्रास और दृष्टांत अलंकारों का सहज प्रयोग सराहनीय है। अभिधा शब्द शक्ति के प्रयोग ने कवि के कथन को सरलता और सरसता प्रदान की है। प्रसाद गुण और शांत रस का प्रयोग है, स्वरमैत्री ने लय की उत्पत्ति की है।

(ङ) कबीर ने हिंदू-मुसलमान को आपसी भेदभाव मिटाने और ईश्वर का स्मरण करने की प्रेरणा दी है।

(च) जब हिंदू-मुसलमान में भेद-भाव समाप्त हो गया तो काबा काशी के समान हो गया।

7. ऊँचे कुल कहा जनमिया, जे करनी ऊँच न होय।

सुबरन कलस सुरा भरा, साधू निंदा सोय॥


(क) कबीर ने किस व्यक्ति को 'ऊँचा' नहीं माना?
(ख) साधु किस की निंदा करते हैं?
(ग) कोई व्यक्ति किस कारण महान बन जाता है?
(घ) साखी में निहित काव्य-सौंदर्य को प्रतिपादित कीजिए।
(ङ) ऊँचे कुल' से क्या तात्पर्य है?
(च) सोने का कलश भी बुरा क्यों कहलाता है?
(छ) मनुष्य की श्रेष्ठता किसमें छिपी है?

उत्तर-(क) कबीर ने उस व्यक्ति को ऊँचा नहीं माना जो अवगुणों से भरा हुआ हो। किसी भी व्यक्ति को केवल ऊँचे परिवार में जन्म लेना ही महान नहीं बनाता।

(ख) साधु प्रत्येक उस व्यक्ति की निंदा करते हैं जो दुर्गुणों से भरे हुए हैं।

(ग) कोई व्यक्ति अपने द्वारा किए जाने वाले सत्कर्मों और अपने सद्गुणों से महान बन जाता है।

(घ) कबीर के द्वारा रचित उपदेशात्मक शैली की साखी में किसी व्यक्ति की श्रेष्ठता उसके सद्गुणों में मानी गई न कि उसके ऊँचे परिवार में। स्वरमैत्री के प्रयोग ने कवि की वाणी को लयात्मकता प्रदान की है। अनुप्रास का सहज प्रयोग किया गया है। प्रसाद गुण और अभिधा शब्द शक्ति ने कथन को सरलता और सरसता प्रदान की है। शांत रस विद्यमान है। तद्भव शब्दावली की अधिकता है।

(ङ) आर्थिक और सामाजिक रूप से श्रेष्ठ और प्रतिष्ठित परिवार व्यक्ति को ऊँचे कुल का माना जाता है।

(च) सोने का कलश तब बुरा माना जाता है जब उस में समाज के द्वारा निंदनीय शराब भरी हुई हो।

(छ) मनुष्य की श्रेष्ठता उस के द्वारा किए जाने वाले ऊँचे कामों में छिपी रहती है।



सबद


1. मोकों कहाँ ढूंढे बंदे, मैं तो तेरे पास में।

ना मैं देवल ना मैं मसजिद, ना काबे कैलास में।

ना तो कौने क्रिया-कर्म में, नहीं योग बैराग में।

खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं, पल भर की तालास में।

कहैं कबीर सुनो भई साधो, सब स्वांसों की स्वांस में।


(क) कवि ने किस शैली में किसे संबोधित किया है?

(ख) निर्गुण ब्रह्म कहाँ-कहाँ पर नहीं मिलता है?

(ग) ब्रह्म की प्राप्ति कहाँ हो सकती है?

(घ) पद में निहित काव्य-सौंदर्य प्रतिपादित कीजिए।

(ङ) 'मैं' और 'तेरे' किसके लिए प्रयुक्त हुआ है?

(च) व्यक्ति किसे पल भर में नहीं ढूँढ़ सकता?


उत्तर-(क) कवि ने निर्गुण ब्रह्म के द्वारा आत्मकथात्मक शैली में उन मानवों को संबोधित किया है जो परमात्मा को प्राप्त करना चाहते हैं।

(ख) निर्गुण ब्रह्म को मंदिर, मस्जिद, काबा, कैलाश, क्रिया-कर्म, आडंबर, योग, वैराग्य आदि में नहीं पाया जा सकता।

(ग) ब्रह्म की प्राप्ति तो पल भर की तलाश से ही संभव है क्योंकि वह तो हर प्राणी के भीतर उसकी सांसों की सांस में बसता है। हर प्राणी को ब्रह्म अपने भीतर से ही प्राप्त होता है।

(घ) कबीर ने निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति के लिए किसी भी प्रकार के आडंबर का विरोध किया है और माना है कि उसे अपने हृदय की पवित्रता से अपने भीतर ही ढूंढा जा सकता है। कवि ने तद्भव शब्दावली का अधिकता से प्रयोग किया है। लयात्मकता का गुण विद्यमान है। अनुप्रास अलंकार का स्वाभाविक प्रयोग सनाहनीय है। प्रसाद गुण, अभिधा शब्दशक्ति और शांत रस ने कथन को सरलता और सहजता प्रदान की है।

(ङ) कवि ने 'मैं' का प्रयोग ईश्वर और 'तेरे' का प्रयोग मनुष्य के लिए किया है।

(च) व्यक्ति ईश्वर को पल भर में ढूँढ़ सकता है क्योंकि वह तो हर व्यक्ति में बसता है। वह साँस-साँस में पहचान कर ईश्वर को प्राप्त कर सकता है।

2. संतौँ भाई आई ग्याँन की आंधी रे।

भ्रम की टाटी सबै उड़ानी, माया रहै न बाँधी।

हिति चित्त की द्वै थूँनी गिराँनी, मोह बलिँडा तूटा।

त्रिस्ना छाँनि पर घर ऊपरि, कुबधि का भाँडाँ फूटा।

जोग जुगति करि संतौं बाँधी, निरचू चुवै न पाँणी॥

कूड़कपट काया का निकस्या, हरि की गति जब जाँणी॥

आँधी पीछे जो जल बूठा, प्रेम हरि जन भींनाँ।

कहै कबीर भाँन के प्रगटे उदति भया तम खीना॥


(क) कवि ने भ्रम नष्ट होने तथा ज्ञान की प्राप्ति का रूपक किस की सहायता से बांधा है?

(ख) तृष्णा रूपी छप्पर को भूमि पर किस ने गिरा दिया?

(ग) अज्ञान का अंधकार किस कारण क्षीण हुआ था?

(घ) पद में निहित काव्य सौंदर्य को प्रतिपादित कीजिए।

(ङ) कबीर ने 'छप्पर' किस प्रकार बाँधा था?

(च) मनुष्य में कौन-कौन से विकार थे?

(छ) कबीर ने किस ज्ञान की बात कही है?

(ज) 'भाँन' किस का प्रतीक है?


उत्तर-(क) कवि ने भ्रम नष्ट होने तथा ज्ञान की प्राप्ति का रूपक मानव मन में भ्रम रूपी छप्पर के उड़ जाने से बांधा है।

(ख) तृष्णा रूपी छप्पर को ज्ञान की तेज़ आंधी ने भूमि पर गिरा दिया था।

(ग) अज्ञान का अंधकार ज्ञान रूपी सूर्य के उदय होने से क्षीण हुआ था।

(घ) कबीर ने ज्ञान और भक्ति के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए माना है कि इन्हीं से अज्ञान का नाश हो सकता है। तद्भव शब्दावली का अधिकता से प्रयोग किया गया है। लौकिक बिंबों की योजना बहुत सटीक और सार्थक है। स्वरमैत्री ने लयात्मकता की सृष्टि की है। अनुपात, सांगरूपक और रूपकातिशयोक्ति अलंकारों का सहज प्रयोग सराहनीय है। लाक्षणिकता ने कवि के कथन को गहनता प्रदान की है।

(ङ) कबीर ने भ्रम रूपी छप्पर दुविधा रूपी खंभों, तृष्णा रूपी छान तथा माया रूपी रस्सी से बाँधा था, जिसमें मोह रूपी आधार खंभ था।

(च) मनुष्य माया, मोह, तृष्णा दुर्बुद्धि, अज्ञान आदि विकारों से युक्त था।

(छ) कबीर ने प्रभु भक्ति रूपी ज्ञान की बात कही है।

(ज) 'भाँन' ज्ञान रूपी सूर्य का प्रतीक है।

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