Awara Masiha in Hindi class 11 Question Answer | Awara Masiha in Hindi Class 11 Exercise Question Answer | आवारा मसीहा पाठ के प्रश्न उत्तर कक्षा 11

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Awara Masiha in Hindi class 11 Question Answer | Awara Masiha in Hindi Class 11 Exercise Question Answer | आवारा मसीहा पाठ के प्रश्न उत्तर कक्षा 11



प्रश्न 1. “उस समय वह सोच भी नहीं सकता था कि मनुष्य को दु:ख पहुँचाने के अलावा भी साहित्य का कोई उद्देश्य हो सकता है।” लेखक ने ऐसा क्यों कहा ? आपके विचार से साहित्य के कौन-कौन से उद्देश्य हो सकते हैं ?

उत्तर : लेखक ने ऐसा इसलिए कहा था क्योंकि उन दिनों स्कूलों में बच्चों को प्रारंभिक शिक्षा के बाद ‘सीता वनवास,’ ‘चारुपाठ,’ ‘सद्भाव-सद्युरु’ और ‘प्रकांड व्याकरण’ आदि पढ़ाया जाता था। शरत् ने देवानंदुर में ‘बोधोदय’ तक पढ़ा था। भागलपुर आने पर नाना के मंत्री होने के कारण उसे स्कूल की छात्रवृत्ति कलास में दाखिल कर दिया गया, जो उसके लिए बड़ी क्लास थी। उन दिनों स्कूल में किताब को पढ़ लेना ही काफ़ी नहीं था, अपितु पंडित जी के सामने उसकी परीक्षा भी देनी पड़ती थी। शरत् अपनी पढ़ाई से आगे वाली कलास में होने के कारण अवश्य ही पंडित जी से मार खाता होगा इसीलिए लेखक ने उसका साहित्य से प्रथम परिचय दु:ख देने वाला बताया है।

साहित्य का उद्देश्य प्रत्येक मनुष्य के लिए अलग होता है। साहित्य मनुष्य के लिए एक प्रेरणा-स्रोत है, जिसे पढ़कर मनुष्य अपने जीवन को अँधेर से निकाल प्रकाश में लाता है। अच्छा साहित्य मनुष्य को सत्कर्मों के लिए प्रेरित करता है। उसे देश-भक्ति, वीरता, भाईचारे, एकता तथा आपसी सहयोग का मार्ग दिखाता है। साहित्य के माध्यम से मनुष्य अपने मन के भावों को दूसरों तक पहुँचाता है। एक छोटी सी कविता भी मनुष्य के जीवन को बदल देती है। इसलिए कह सकते हैं कि साहित्य वह साधन है, जिसके द्वारा मनुष्य स्वर्य को शक्ति प्रदान करता है और उन्नति के पथ पर अग्रसर होता है।


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प्रफ्न 2. पाठ के आधार पर बताइए कि उस समय के और वर्तमान समय के पढ़ने-पढ़ाने के तौर-तरीकों में क्या अंतर और समानताएँ हैं ? आप पढ़ने-पढ़ाने के कौन-से तौर-तरीकों के पक्ष में हैं और क्यों ?

उत्तर : पहले समय और वर्तमान समय की पढ़ाई में अंतर आने से पढ़ने और पढ़ाने के तौर-तरीकों में भी अंतर आ गया है। पहले बच्चों को पाँच-छह साल की उम्र में स्कूल में पढ़ने भेजा जाता था। प्रारंभिक शिक्षा के उपरांत स्कूलों में साहित्य पढ़ाया जाता था जिसमें बच्चों को देश की संस्कृति का ज्ञान करवाया जाता था। स्कूलों में ‘सीता बनवास’, ‘चारु पाठ’, ‘सद्भाव-सदगुरु’ और ‘प्रकांड व्याकरण’ जैसा साहित्य पढ़ाते थे। उस समय पुस्तक पढ़ लेना ही काफी नहीं होता था, उसकी प्रतिदिन पंडित जी के सामने परीक्षा देनी पड़ती थी।

इससे बच्चों को सब कुछ याद हो जाता था और वे उसे अपने दैनिक व्यवहार में भी शिक्षा का उपयोग करते थे। आज के समय में स्कूलों की पढ़ाई व्यावहारिक हो गई है। बच्चों को आज की तकनीक के अनुसार शिक्षा दी जाती है। बाई-तीन साल के बच्चों को स्कूल में भेज दिया जाता है-शुरू से ही बच्चों पर किताबों का बोझ डाल दिया जाता है। बच्चों को नैतिक और मर्यादा की शिक्षा नहीं दी जाती। नैतिक शिक्षा का विषय स्कूलों में पढ़ाया तो जाता है परंतु उस शिक्षा को अपनाने के लिए बल नहीं दिया जाता। गुरु-विद्यार्थियों के संबंधों में भी अंतर आ गया है। आज की व्यावहारिक पढ़ाई ने गुरु की मर्यादा और विद्यार्थियों का प्यार और सम्मान सब समाप्त कर दिया है।

पढ़ते-पढ़ाने के तौर-तरीकों में बदलते समय के साथ बहुत बड़ा परिवर्तन आया है। आज की शिक्षा बदलते समय की तकनीक के साथ है जो कि आज के सपाज की आवश्यकता बन गई है। परंतु बदलती हुई शिक्षा-प्रणाली के साथ यदि पहले की तरह बच्चों को नैतिक, संस्कृति, मयांदा की शिक्षा पर बल दिया जाना चाहिए। देश की उन्नति और भविष्य को देखते हुए हम लोग आज की शिक्षा प्रणाली के पक्ष में हैं। आज विज्ञान में नई-नई तकनीक आ रही है। दिन-प्रतिदिन नई-नई खोजें हो रही हैं। उनकी जानकारी हमें इस नई शिक्षा प्रणाली से मिल सकती है। नई शिक्षा प्रणाली को व्यावहारिक के साथ-साथ यदि मर्यादित भी बना दिया जाए तो यह नई शिक्षा प्रणाली विद्यार्थियों, शिक्षकों और देश के लिए उपयोगी सिद्ध होगी।


प्रश्न 3. पाठ में अनेक अंश बाल सुलभ चंचलताओं, शरारतों को बहुत रोचक बंग से उजागर करते हैं। आपको कौन-सा अंश अच्छा लगा और क्यों ? वर्तमान समय में इन बाल-सुलभ क्रियाओं में क्या परिवर्तन आए हैं ?

उत्तर : लेखक के अनुसार बालक शरत् बचपन में बहुत शरारती था। उसमें निडरता, बुद्धिमता, समझदारी और आजादी के गुण थे। शरत् को अपनी स्वतंत्रता बहुत प्रिय थी। वह अधिक समय तक एक जगह टिककर नहीं रह पाता था। एक बार देवानंदपुर के स्कूल में उसकी शरारतों के कारण पंडित जी ने उसकी आधी छुट्टी बंद कर दी थी। पंडित ने भोलू नाम के लड़के को उसकी देखरेख के लिए बैठा दिया।

शरत पाठशाला के कमरे के एक कोने में फटी हुई दरी पर बैठा था, उसके हाथ में स्लेट थी। वह कभी औँखें खोलता और कभी बंद करता था। अंत में वह गहरी सोच में डूब गया कि यह समय तो गुड्डी उड़ाने के लिए है। उसे बाहर निकलने के लिए एक युक्ति सूझ गई। वह स्लेट लेकर भोलू के पास गया और कहने लगा कि उसे यह सबाल नहीं आता। भोलू जिस बेंच पर बँठा था वह टूटी हुई थी और पास में चूने का ढेर लगा हुआ था। भोलू उसका सवाल देखने लगा। उसी समय एक घटना घट गई-भोलू चूने के ठेर पर गिर पड़ा और शरत गायब हो गया। इस घटना से यह पता चलता है कि बालक शरत् अपनी आजादी के लिए कुछ भी कर सकता था। शरत को बंधन में रहना पसंद नहीं था। उसे एक आजाद पक्षी की तरह खुले वातावरण में रहना पसंद था।

वर्तमान समय में इन बाल सुलभ क्रियाओं में बहुत परिवर्तन आया है। गाँवों और छोटे शहरों में तो बच्चे छोटी-छोटी बाल-सुलभ क्रियाएँ करते दिख जाते हैं, परंतु बड़े शहरों में बाल-सुलभ क्रियाएँ देखने को नहीं मिलती। आज बच्चों के शारीरिक रूप से खेले जाने वाले खेल कम हो रहे है। उनकी जगह टेलीविजन, कंप्यूटर ने ले ली है। वर्तमान समय में सामाजिक परिवेश में परिवर्तन आने से बच्चों का बचपन समाप्त होता जा रहा है। बच्चों को खेलने के लिए पहले की तरह खुली जगह और वातावरण नहीं मिलता है। आज की शिका प्रण्चली ने भी बच्चों के बचपन की क्रियाओं को समाप्त कर दिया है।


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प्रश्न 4. नाना के घर किन-किन बातों का निघेध था ? शरत् को उन निघिद्ध कार्यों को करना क्यों प्रिय था ?

उत्तर : बालक शरत् के नाना के घर कठोर अनुशासन का पालन किया जाता था। उसके नाना के घर में बच्चों का प्यार करना और पतंग उड़ाना, लट्दू घुमाना, गुल्ली-डंडा खेलना, तितली पकड़ना, उपवन लगाना आदि ऐसे सभी कार्यों की मनाही थी, जिनमें बच्चों को स्वतंत्रता का अनुभव होता था और मज्ञा आता था। यहाँ तक कि अखबार पढ़ना, बंगदर्शन साहित्य पढ़ना भी मना था। ये सभी कार्य घर में लुक-छिपकर किए जाते थे। यदि कोई बच्चा इन निषिद्ध कार्यों को करता हुआ पकड़ा जाता था, उसे कठोर दंड दिया जाता था जिससे दूसरे बच्चे-कायों को करते हुए डरें। उनके अनुसार बच्चों को केवल पढ़ना चाहिए। खेल-कूद बच्चों का जीवन नष्ट कर देता है।

वालक शरत जब नाना के घर रहने भागलपुर गया तो वह ऐसे कठोर शासन में रहने का आदी नहीं था। उसे वे सभी कार्य करने प्रिय थे जिसे नाना के घर में करना मना था। उसे पतंग उड़ाना, गंगा-स्नान, लट्रु चलाना, गोली खेलना, तितली पकड़ना और साहित्य पढ़ना अच्छा लगता था। उसे इन कार्यों को करने में स्वतंत्रता का अनुभव होता था। उसे अपने जीवन में ताज़गी अनुभव होती थी। शरत् के अनुसार खेलने से शरीर बनता है। बुद्धि तेज होती है इसीलिए नाना से दंड मिलने के डर की परवाह किए बिना वह खेलने चला जाता था।


प्रश्न 5.आपको शरत और उसके पिता मोतीलाल के स्वभाव में क्या समानताएँ नजर आती हैं ? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।

उत्तर : शरत् और उसके पिता के स्वभाव में बहुत समानताएँ हैं। दोनों की साहित्य में राचि थी, साँदर्य-बोध था और प्रकृति से प्रेम था। दोंनों कल्पनाशील और यायावर प्रकृति के थे। दोनों के स्वभाव की समानताएँ इस प्रकार हैं-

(i) साहित्य में रुचि – शरत् और उसके पिता मोतीलाल दोनों की साहित्य में रुचि थी। मोतीलाल को लिखने का बहुत शौक था परंतु उन्होंने जो लिखा, उसे कभी पूरा नहीं किया। उनकी कहानियों की शुरुआत जितनी अधिक महत्वपूर्ण होती थी अंत उतना ही महत्वहीन होता था। भागलपुर में रहते हुए मोतीलाल ‘बंकिम चंद्र’ का ‘बंग दर्शन’ बड़े उत्साह से पढ़ते थे। कभी-कभी रवींद्रनाथ का साहित्य भी पढ़ते थे। भागलपुर में गांगुली परिवार में साहित्य पढ़ना मना था। वह ये सब लुक-छिपकर पढ़ते थे। शरत ने अपने स्कूल के पुस्तकालय से लेकर उस युग के सभी प्रसिद्ध लेखकों की रचनाएँ केवल पढ़ी ही नर्ही अपितु वह उनका सूक्ष्म अध्ययन भी करता था।

(ii) सांदर्य-बोध – शरत् और उसके पिता दोनों में सॉंदर्य-बोध की प्रचुरता थी। मोतीलाल सभी काम सुंदर बंग से करते थे। वे लिखने से पहले सुंदर कलम में नया निब लगाकर बढ़िया कागज पर मोती जैसे अक्षरों में लिखते थे। भागलपुर में भी वह बच्चों को सुंदर अक्षर में लिखना सिखाते थे। शरत् में भी अपने पिता की तरह सभी कार्य सुंदर दंग से करने की आदत थी। वह अपने कमरे को खूब सजाकर रखता था, चौकी और उस पर सुंदर-सी तिपाई, एक बंद डेस्क, और उसमें पुस्तकें व कापियाँ, कलम, दवात, सभी वस्तुएँ बड़े सुंदर बंग से लगाकर रखता था। उसकी पुस्तकें झक-झक करती थीं। कापियों को करीने से काटकर बहुत ही सुंदर ढंग से तैयार करता था।

(iii) प्रकृति-प्रेमी – दोनों को प्रकृति से बहुत प्यार था। मोतीलाल को गंगा-घाट, वन, पेड़-पौधों से बहुत प्यार था। भागलपुर में इन जगहों पर जाना मना था, परंतु वे फिर भी चले जाते थे। ऐसे ही शरत् को गंगा-घाद पर स्नान करना, मछली पकड़ना और तितली पकड़ना बहुत प्रिय था। उसने अपना एक उपवन भी बना रखा था जिसमें तरह-तरह के फूल थे और उसमें एक छोटी तलैया भी बना रखी थी। शरत् ने अपने एकांत के लिए भागलपुर में एक तपोवन की खोज कर रखी थी जो गंगा के किनारे लताओं से घिरा हुआ था जिसमें बैठकर उसे बहुत अच्छा लगता था।

(iv) संवेदनशील – मोतीलाल और शरत् स्वभाव से संवेदनशील थे। वे दोनों दूसरों के दु:ख से दु:खी हो उठते थे। दुखियों के दु:ख दूर करने के लिए वे दोनों सदा तैयार रहते थे। मोतीलाल भागलपुर में सजा पाने वाले बच्चों के लिए तरह-तरह के खिलौने बनाते थे और गोदाम से बाहर निकलने पर उसका स्वागत फूलों की माला से करते थे। शरत् के संवेदनशील स्वभाव ने उसे कहानीकार बना दिया।

(v) कल्पनाशील-दोनों में कल्पना करने की अपार शक्ति थी। मोतीलाल बच्चों को अपनी कल्पना से तरह-तरह की कहानियाँ सुनाते थे। शरत् भी अपनी सूझ-बूझ से तरह-तरह की कहानियाँ गढ़ता था जिसे सुनकर सामने वाला चकित रह जाता था।

(vi) यायावार प्रकृति – दोनों को एक स्थान पर टिककर रहना पसंद नहीं था। उन्हें घूमना-फिरना अच्छा लगता था। मोतीलाल ने अपने इसी स्वभाव के कारण कई जगह नौकरी की। शरत् का भी जब एक स्थान से मन उखड़ जाता था तो वह कई-कई दिन के लिए घर से गायब हो जाता था। कई बार उसके पिता मोतीलाल उसे पूछ-पूछ कर ढूँढ़कर लाते थे। इस तरह हम कह सकते है कि दोनों के स्वभाव में बहुत समानताएँ थीं।


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प्रश्न 6. शरत की रचनाओं में उनके जीवन की अनेक घटनाएँ और पात्र सजीव हो उठे हैं। पाठ के आधार पर विवेचना कीजिए।

उत्तर : शरत ने जीवन को बहुत नजदीक से देखा था। उसमें बचपन से ही आस-पास के वातावरण की सृक्ष्म विवेचना करने की अपार प्रतिभा थी। शरत् ने कराशिल्पी शरत्चंद्र बनने के उपरांत अपने जीवन की उन घटनाओं और पात्रों का बहुत सूक्ष्म विवेचन करके उनको अपनी रचनाओं का आधार बनाया। देवानंदपुर में रहते हुए शरत की बाल संगिनी धीरू थी जो उसके हर कार्य में साथ देती थी।

कई बार वह शरत् के क्रोध का भी शिकार बनती थी। शरत की यह संगिनी उनके कई उपन्यासों में नायिका के रूप में साकार हो उठी है-जजैसे ‘देवदास’ की पारो, ‘बड़ी दीदी’ की माधवी और ‘श्रीकांत’ की राजलक्ष्मी। ये सब धीरु ही का तो विकसित और विराट रूप हैं। ‘देवदास’ में तो कथाशिल्पी शरत्चंद्र ने जैसे अपने बचपन को ही मूर्त रूप दे दिया था। शरत बाग से फल चुरने की कला में कुशल था। उसे कभी कोई पकड़ नहीं पाया था। उसकी तीक्ष्ण बुद्धि के आगे मालिकों के सब उपाय व्यर्थ हो जाते थे। कथाशिल्पी शरत्चंद्र के सभी प्रसिद्ध पात्र देवदास, श्रीकांत, दुराततराम और सध्यसायी इस कला में निष्णात थे। शरत् बचपन से ही स्वल्पाहारी था। बड़े होने पर कथाशिल्पी शरत्चंद्र की ‘बड़ी बहू’ सबसे अधिक इसलिए तो परेशान रहती थी।

शरत अपने पिता के साथ ‘डेहरी आन सोन’ गया था। वहाँ उसके पिता को नौकरी मिली थी। उस प्रवास के समय जुड़ी यादों के सहारे कथाशिल्पी ने ‘गृहदाह ‘ में इस नगव्य स्थान को भी अमर कर दिया। शरत का जब देवानंदपुर रहते हुए मन उखड़ जाता था तो वह कभी अकेले या फिर कभी मित्रों को साथ लेकर कृष्पपुर गाँव के रघुनाथदास गोस्वामी के अखाड़े में पहुँचकर कीर्तन का आनंद लेता था। यहाँ उसका मित्र गाँहहर रहता था। ‘श्रीकांत’ चतुर्थ पर्व का वह आधा पागल कवि कीर्तन भी करता था। ‘श्रीकांत’ चतुर्थ पर्व में कथाशिल्पी शरत्चंद्र ने बचपन में स्कूल जाने वाले मार्ग को बड़े होकर स्टेशन से जोड़ा है।

स्टेशन जाते हुए वह मार्ग बहुत जाना-पहचाना लगता है। ऐसी ही कई बातों को अपने साहित्य का आधार बनाकर बचपन को जी लिया था। ‘काशीनाथ’ शरत् के गुरुभाई का नाम था। उसके नाम को नायक बनाकर एक घर-जँवाई का जीवन का वर्णन किया है। शरत ने अपने पिता मोतीलाल को ससुराल में रहते देखकर जाना था कि घर-ज”ँवाई कैसा होता है। ‘काशीनाथ’ को ससुराल में मानसिक सुख नहीं है।’काशीनाथ’ में एक जगह कथाशिल्पी ने लिखा है, “‘कभी-कभी वह ऐसा महसूस करने लगता है जैसे अचानक किसी ने गर्म पानी के कड़ाहे में छोड़ दिया हो। मानो सबने मिलकर, सलाह करके उसकी देह को खरीद लिया हो।

मोतीलाल जैसे स्वच्छंद व्यक्ति की गांगुली जैसे अनुशासित और कठोर नियमों वाले परिवार में मानसिक स्थिति ऐसी ही रही होगी। ‘शुभदा’ के हारान बाबू की तरह मोतीलाल भी भुवनमोहिनी के क्षुव्ध होने पर रात-रात भर घर नहीं आते थे। ‘विलासी’ का कायस्थ मृत्युंजय शरत् का तीसरी कक्षा का सहपाठी था, जिसे उसके चाचा बड़े बाग को हड़पने के लिए तंग करते थे। एक बार बीमार पड़ने पर एक बूढ़ा ओझा और उसकी बेटी उसे अपनी सेवा से ठीक करते हैं।

समाज की परवाह किए बिना मृत्युंजय उसे पत्नी बनाकर रख लेता है और उसके साथ रहते हुए संपेरा बन जाता है। शरत् भी कई बार उससे साँप पकड़ने की विद्या सीखने गया था। पुरी से आते हुए उसे बुखार आ गया था। उस समय एक बाल विधवा ने उसकी सेवा की। उस विधवा का देवर और बहनोई दोनों उस पर अपना अधिकार सिद्ध कर रहे थे। वह उनसे बचकर भागती है परंतु पकड़ी जाती है। शरत् ने इस घटना को आधार बनाकर ‘चरित्रहीन’ उपन्यास की रचना की।’ शुभदा’ की कृष्णा बुआ की तरह उसकी दादी ने सदा ही घर की इज्जत की रक्षा की थी। कथाशिल्पी शरत चंद देवानंदपुर गाँब में गुजारे अभाव और दारिड्य के दिनों को भी भूल नहीं पाया था। उन्होने ‘शुभदा’ में दरिदता के भयानक चित्र खींचे हैं। इसके पीछे निश्चय ही यह कारण होगा कि इसी यातना की नींव में उसकी साहित्य साधना का बीजारोपण हुआ। उनके जीवन की ऐसी घटनाओं का अंत नहीं है। इन्हीं घटनाओं की संवेदना ने उन्हें कहानीकार बना दिया।


प्रश्न 7. “जो रुदन के विभिन्न रुपों को पहचानता है वह साधारण बालक नही है। बड़ा होकर वह निश्चय ही मनस्तत्व के व्यापार में प्रसिद्ध होगा।” अघोर बाबू के मित्र की इस टिप्पणी पर अपनी टिप्पणी कीजिए।

उत्तर : बालक शरन् में स्कूल के पुस्तकालय से उस समय के प्रसिद्ध लेखकों की रचनाएँ पढ़कर उनका सूक्ष्म विश्लेषण करने की सहज प्रतिभा थी। एक दिन बालक शरत् अवकाश प्राप्त अध्यापक अघोरनाथ अधिकारी के साथ गंगाघाट पर स्नान के लिए जा रहा था। रास्ते में एक टूटे हुए घर से एक स्त्री के धीरे-धीरे रोने की आवाज आ रही थी। अधिकारी महोदय ने पूछा कि कौन रो रहा है ? शरत् ने बताया कि रोने वाली स्री का स्वामी अंधा था।

वह कल रात मर गया इसलिए वह बहुत दुःखी है। दु:खी लोग बड़े आदमियों की तरह दिखाने के लिए जोर-जोर से नही रोते। उनका रोना दु:ख से विदीर्ण प्राणों का क्रंदन है, यह सचमुच का रोना है। शरत् के मुँह से रोने का इतना सूक्ष्म विवेचन सुनकर अघोर बाबू हैरान रह गए। उन्होंने इसकी चर्चा अपने मित्र से की। उन्होंने कहा कि जो रोने के विभिन्न रूपों को पहचानता है, वह निश्चय ही विद्या के क्षेत्र में प्रसिद्ध होगा।

बालक शरत् का दु:खों से सामना बचपन से ही हो गया था। उसका बचपन घोर दारिद्य, अभाव और दूसरों के सहारे गुजरा था। इसलिए उसका स्वभाव अंतर्मुखी हो गया था। वह अपने आस-पास के वातावरण का सूक्ष्म अध्ययन करता था, जिससे उसमें हर वस्तु को समझने की अपार शक्ति पैदा हो गई थी। उसके मुँह से रोने का ऐसा विचित्र वर्णन सुनकर लगा कि बालक को उसके परिवार के दु:खों ने उम्र से पहले बड़ा बना दिया था। उसकी यह प्रतिभा उसके असाधारण व्यक्तित्व को दर्शाती थी जिससे लगता था कि आगे जाकर साहित्य के क्षेत्र में वह जरूर अपना नाम रौशन करेगा।



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