Kutaj Class 12 Hindi Important Questions | Cass 12 Hindi Chapter Kutaj Question Answer | कुटज पाठ के प्रश्न उत्तर
प्रश्न 1. पवरंत के बारे में प्रायः क्या कहा जाता है ? हिमालय की शोभा के बारे में क्या बताया गया है ?
उत्तर : प्रायः कहा जाता है कि पर्वत शोभा निकेतन होते हैं। फिर हिमालय का. तो कहना ही क्या! पूर्व और अपर समुद्र-महोदधि और रत्नाकर दोनों को दोनों भुजाओं से थामता हुआ हिमालय ‘पृथ्वी का मानदंड’ कहा जाए तो गलत नहीं है। कालिदास ने भी ऐसा ही कहा था। इसी के पाद-देश में यह श्रंखला दूर तक लोटी हुई है। लोग इसे शिवालिक श्रृंखला कहते है। ‘शिवालिक’ का क्या अर्थ है ? ‘शिवालिक’ या शिव के जटाजूट का निचला हिस्सा। लगता तो ऐसा ही है क्योंकि शिव की लटियायी जटा ही इतनी सूखी, नीरस और कठोर हो सकती है।
प्रश्न 2. ‘कुटज’ निबंध में आच्रार्य द्विवेदी ने सुख और दुख के क्या लक्षण बताए हैं ? कुटज दोनों से भिन्न कैसें है ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर : ‘कुटज’ पाठ में बताया गया है कि दुःख और सुख तो मन के विकल्प हैं। सुखी केवल वह व्यक्ति है जिसने मन को वश में कर रखा है। दु:ख उसको होता है जिसका मन परवश अर्थात् दूसरे के वश में होता है। यहाँ परवश होने का यह भी अर्थ है-खुशामद करना, दाँत निपोरना, चाटुकारिता करना, जी हजूरी करना। जिस व्यक्ति का मन अपने वश में नहीं होता वही दूसरे के मन का छंदावर्तन करता है। ऐसा व्यक्ति स्वयं को छिपाने के लिए मिथ्या आडंबर रचता है और दूसरों को फँसाने के लिए जाल बिछाता है। सुखी व्यक्ति तो अपने मन पर सवारी करता है,मन को अपने पर सवार नहीं होने देता। अतः दुःख और सुख मन के विकल्प हैं।
प्रश्न 3. उपकार और अपकार करने वाले के बारे में क्या कहा गया है ?
उत्तर : लेखक का कहना है कि जो समझता है कि वह दूसरों का उपकार कर रहा है वह अबोध है और जो समझाता है कि दूसरे उसका अपकार कर रहे हैं वह भी बुद्धिही न है। कौन किसका उपकार करता है, कौन किसका अपकार कर रहा है। यह बात विचारणीय है मनुष्य जी रहा है, केवल जी रहा है; अपनी इच्छा से नहीं, इतिहास-विधाता की योजना के अनुसार। किसी को उससे सुख मिल जाए, बहुत अच्छी बात है; नहीं मिल सका, कोई बात नहीं, परंतु उसे अभिमान नहीं होना चाहिए। सुख पहुँचाने का अभिमान यदि गलत है, तो दुःख पहुँचाने का अभिमान तो नितांत गलत है।
प्रश्न 4. भाषा विज्ञानी पंडितों को क्या देखकर आश्चर्य हुआ ?
उत्तर : भाषा विज्ञानी पंडितों को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि ऑस्ट्रेलिया से सुदूर जंगलों में बसी जातियों की भाषा एशिया में बसी हुई कुछ जातियों की भाषा से संबद्ध है। भारत की अनेक जातियाँ वह भाषा बोलती हैं, जिनमें संथाल, मुंडा आदि भी शामिल हैं। शुरू-शुरू में इस भाषा का नाम आस्ट्रो-एशियाटिक दिया गया था। दक्षिण-पूर्व या अग्निकोण की भाषा होने के कारण इसे आग्नेय-परिवार भी कहा जाने लगा है। अब हम लोग भारतीय जनता के वर्ग-विशेष को ध्यान में रखकर और पुराने साहित्य का स्मरण करके इसे कोल-परिवार की भाषा कहने लगे हैं। पंडितों ने बताया है कि संस्कृत भाषा के अनेक शब्द, जो अब भारतीय संस्कृति के अविच्छेद्य अंग बन गए हैं, इसी श्रेणी की भाषा के हैं। कमल, कुड्मल, कंबु, कंबल, तांबूल आदि शब्द ऐसे ही बताए जाते हैं। पेड़-पौधों, खेती के उपकरणों और औजारों के नाम भी ऐसे ही हैं। ‘कुटज’ भी हो तो कोई आश्चर्य नहीं।
प्रश्न 5. पर्वतराज हिमालय की हिमाच्छादित चोटियों को देखकर कैंसा लगता है ? कुटज क्या शिक्षा देता जान पड़ता है ?
उत्तर : पर्वतराज हिमालय की हिमाच्छादित चोटियों को देखकर लगता है कि वहीं कहीं भगवान महादेव समाधि लगाकर बैठे होंगे; नीचे सपाट पथरीली जमीन का मैदान है, कहीं-कहीं पर्वतनंदिनी सरिताएँ आगे बढ़ने का रास्ता खोज रही होंगी-बीच में यह चट्टानों की ऊबड़-खाबड़ जटाभूमि है-सूखी, नीरस, कठोर! यहीं आसन मारकर बैठे हैं कुटज। एक बार अपने झबरीले मूर्धा को हिलाकर समाधिनिष्ठ महादेव को पुष्पस्तबक का उपहार चढ़ा देते हैं और एक बार नीचे की ओर अपनी पाताल भेदी जड़ों को दबाकर गिरिनेंदिनी सरिताओं को संकेत से बता देते हैं कि रस का स्रोत कहाँ हैं। कुटज यह शिक्षा देता जान पड़ता है कि यदि तुम जीना चाहते हो तो कठोर पाषाण को भेदकर, पाताल की छाती चीरकर अपना भोग्य संग्रह करो; वायुमंडल को चूसकर, झंझा-तूफान को रगड़कर, अपना प्राप्य वसूल लो; आकाश को चूमकर अवकाश की लहरी में झूमकर उल्लास खींच लो।
प्रश्न 6. लेखक ‘कुटज’ शब्द की व्याख्या किस-किस रूप में करता है ?
उत्तर : लेखक ‘कुटज’ शब्द की व्याख्या करते हुए कहता है-
‘कुटज’ अर्थात् जो कुट से पैदा हुआ हो। ‘कुट’ घड़े को भी कहते हैं, घर को भी कहते हैं। कुट अर्थात् घड़े से उत्पन्न होने के कारण प्रतापी अगस्त्य मुनि भी ‘कुटज’, क्रहे जाते हैं। घड़े से तो क्या उत्पन्न हुए होंगे। कोई और बात होगी। संस्कृत में ‘कुटिहारिका’ और ‘ कुटकारिका’ दासी को कहते हैं। ‘कुटिया’ या ‘कुटीर’ शब्द भी कदाचित् इसी शब्द से संबद्ध है। क्या इस शब्द का अर्थ घर ही है। घर में काम-काज करने वाली दासी कुटकारिका और कुटहारिका कही ही जा सकती है। एक जऱा गलत ढंग की दासी ‘कुटनी’ भी कही जा सकती है। संस्कृत में उसकी गलतियों को थोड़ा अधिक मुखर बनाने के लिए उसे ‘कुटृनी’ कह दिया गया है। अगस्त्य मुनि भी नारदजी की तरह दासी के पुत्र थे क्या ? घड़े में पैदा होने का तो कोई तुक नहीं है, न मुनि कुटज के सिलसिले में, न फूल कुटज के। फूल गमले में होते अवश्य हैं, पर कुटज तो जंगल का सैलानी है। उसे घड़े या गमले से क्या लेना-देना ? शब्द विचारोत्तेजक अवश्य है।
प्रश्न 7. कालिदास ने कुटज का उपयोग कब और कहाँ किया ? यह बड़भागी क्यों है ?
उत्तर : कालिदास ने ‘आषाढ़स्य प्रथम-दिवसे’ रामगिरि पर यक्ष को जब मेघ की अभ्यर्थना के लिए नियोजित किया तो कंबख्त को ताजे कुटज पुष्पों की अंजलि देकर ही संतोष करना पड़ा-उसे चंपक नहीं, बकुल नहीं, नीलोत्पल नहीं, मल्लिका नहीं, अरविंद नहीं- फकत कुटज के फूल मिले। यह और बात है कि आज आषाढ़ का नहीं, जुलाई का पहला दिन है। मगर फर्क भी कितना है। पर यक्ष बहाना-मात्र है, कालिदास ही कभी ‘शापेनास्तंगमितमहिमा’ होकर रामगिरिं पहुँचे थे, अपने ही हाथंथं इस कुटल पुष्प का अर्घ्य देकर उन्होंने मेघ की अभ्यर्थना की थी। शिवालिक की इस अनत्युच्च पर्वत-श्रृंखला की भाँति रामगिरि पर भी उस समय और कोई फूल नहीं मिला होगा। कुटज ने उनके संतृप्त चित्त को सहारा दिया था। यह फूल बड़भागी है।
प्रश्न 8. ‘कुटज’ पाठ हमें क्या संदेश देता है ?
उत्तर : कुटज हिमालय की ऊँचाई पर सूखी शिलाओं के बीच उगने वाला जंगली फूल है। कुटज में न विशेष सौंदर्य है, न सुगंध, फिर भी लेखक ने उसमें मानव के लिए संदेश पाया है। कुटज में अपराजेय जीवन शक्ति है, स्वावलंबन है, आत्म विश्वास है और विषम परिस्थितियों में भी शान के साथ जीने की क्षमता है। वह समान भाव से सभी परिस्थितियों को स्वीकारता है। इसी प्रकार हमें भी अपनी जिजीविषा बनाए रखनी चाहिए और सभी स्थितियों को सहर्ष स्वीकार कर लेना चाहिए।
प्रश्न 9. ‘कुटज’ का लेखक क्यों मानता है कि स्वार्थ से भी बढ़कर और जिजीविषा से भी प्रचंड कोई-न-कोई शक्ति अवश्य है ? उदाहरण सहित उत्तर दीजिए।
उत्तर : लेखक यह मानता है कि स्वार्थ से भी बढ़कर जिजीविषा से भी प्रचंड कोई शक्ति अवश्य है पर वह शक्ति क्या है ? यह प्रश्न उठता है। वह शक्ति है-‘सर्व’ के लिए स्वयं को न्यौछावर कर देना। व्यक्ति को ‘आत्मा’ केवल व्यक्ति तक सीमित नहीं है, बल्कि वह व्यापक है। अपने में सबको और सब में अपने को मिला देना, इसकी समष्टि बुद्धि के आ जाने पर पूर्ण सुख का आनंद मिलता है। जब तक हम स्वयं को द्राक्षा की भाँति निचोड़कर ‘सर्व’ (सबके) के लिए न्यौछावर नहीं कर देते तब तक स्वार्थ और मोह बना रहता है। इससे तृष्णा उपजती है, मनुष्य दयनीय बनता है, दृष्टि मलिन हो जाती है। लेखक परामर्थ पर बल देता है।
प्रश्न 10. कुटज किस प्रकार अपनी अपराजेय जीवनी-शक्ति की घोषणा करता है ?
उत्तर : कुटज में अपराजेय जीवनी-शक्ति है। यह नाम और रूप दोनों में अपनी अपराजेय जीवनी-शक्ति की घोषणा करता है। कुटज की शोभा मदक है। इसकी जीवनी-शक्ति का इसी से पता चलता है कि यह चारों ओर कुपित यमराज के दारुण नि:श्वासों के समान धधकती धू में भी हरा-भरा बना रहता है। यह कठोर पाषाणों (पत्थरों) के बीच रुके अज्ञात जल स्रोत से अपने लिए जबर्दस्ती रस खींच लाता है और सरस बना रहता है। सूने पर्वतों के मध्य भी इसकी मस्ती को देखकर ईष्य्या होती है।
इसमें कठिन जीवनी-शक्ति होती है। यह जीवन-शक्ति ही जीवनी-शक्ति को प्रेरणा देती है। कुटज अपनी जीवनी-शक्ति की घोषणा करते हुए हमें बताता है कि यदि जीना चाहते हो तो मेरी तरह से कठोर पाषाण को भेदकर, पाताल की छाती को चीरकर अपना भोग्य संग्रह करो, वायुमंडल को चूसकर, आँधी-तूफान को रगड़कर अपना प्राप्य वसूल करो। आकाश को चूमकर, लहरों में झूमकर उल्लास को खींच लो।
प्रश्न 11. कुटज के जीवन से हमें क्या शिक्षा मिलती है? उसे ‘गाढ़े का साथी’ क्यों कहा गया है ?
उत्तर : कुटज के जीवन से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी हँकरन जीने की कला आनी चाहिए तथा अपने प्राप्य को हर कीमत पर वसूल करो। कुटज को गाढ़े का साथी इसलिए कहा गया है क्योंकि यह मुसीबत में काम आया। कालिदास ने आषाढ़ मास के प्रथम दिन जब यक्ष को रामगिरि पर्वत पर मेघ की अभ्यर्थना के लिए भेजा जब उसे और कोई ताजे फूल न मिले तब उसे ताजे कुटज फूलों की अंजलि देकर संतोष करना पड़ा। उसे चंपक, बकुत, नीलोत्पल, मल्लिका, अरविंद के फूल नहीं मिले, मिले तो केवल कुटज के फूल। इस प्रकार वे गाढ़े समय में उनके काम आए। वैसे यक्ष तो बहाना है, कालिदास ही कभी रामगिरि पहुँचे थे और अपने हाथों इस कुटज पुष्प का अर्ध्य देकर मेघ की अभ्यर्थना की थी। इस प्रकार कुटज गाढ़े का साथी बना।
प्रश्न 12. “कुटज में न विशेष सौंदर्य है, न सुगंध, फिर भी लेखक ने उसमें मानव के लिए एक संदेशा पाया है।” -इस कथन की पुष्टि करते हुए बताइए कि वह संदेश क्या है ?
उत्तर : कुटज हिमालय की ऊँचाई पर सूखी शिलाओं के बीच उगने वाला जंगली फूल है। कुटज में न विशेष सौंदर्य है, न सुगंध, फिर भी लेखक ने उसमें मानव के लिए संदेश पाया है। कुटज में अपराजेय जीवन शक्ति है, स्वावलंबन है, आत्मविश्वास है और विषम परिस्थितियों में भी शान के साथ जीने की क्षमता है। वह समान भाव् से सभी परिस्थितियों को स्वीकारता है। इसी प्रकार हमें भी अपनी जिजीविषा बनाए रखनी चाहिए और सभी स्थितियों को सहर्ष स्वीकार कर लेना चाहिए।
प्रश्न 13. कुटज का संक्षिप्त परिचय देते हुए उसके संदेश को अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर : कुटज हिमालय पर्वत की शिवालिक पहाड़ियों की सूखी शिलाओं के बीच उगने वाला एक जंगली वृक्ष है। इसमें सुंदर फूल लगते हैं। कुटज एक ठिगने कद का वृक्ष होता है जिसके फूलों में न तो कोई विशेष सौंदर्य होता है और न सुगंध। फिर भी लेखक को कुटज में मानव के लिए एक संदेश की प्रतीति होती है। कुटज में अपराजेय जीवन-शक्ति है, स्वावलंबन है, आत्मविश्वास है और विषम परिस्थितियों में भी ज्ञान के साथ जीने की क्षमता है। वह सभी परिस्थितियों को समान भाव से स्वीकार करता है। वह सूखी पर्वत शृंखला के पत्थरों से भी अपना भोग्य वसूल लेता है। इस पाठ से यही संदेश मिलता है कि हमें भी सभी प्रकार की परिस्थितियों में सहर्ष जीने की कला आनी चाहिए।
प्रश्न 14. कुटज से किन जीवन-मूल्यों की सीख मिलती है?
उत्तर : कुटज से हमें निम्नलिखित जीवन-मूल्यों की सीख मिलती है-
• हर परिस्थिति में पूरी मस्ती के साथ जिओ।
• अपना प्राप्य अवश्य वसूल करो।
• सदैव अपना आत्मसम्मान बनाए रखो।
• परोपकार के लिए जिओ।
• किसी की चापलूसी मत करो।
• अपने मन पर नियंत्रण रखे।
• ईर्ष्या-द्वेष भावना से ऊपर उठो।
• सदैव प्रसन्नचित्त बने रहो।
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