Sakhiya or Sabad Class 9 | Class 9 Hindi Chapter Sakhiya or Sabad | साखियाँ एवं सबद Class 9
साखियाँ
साखियों का सार
प्रश्न - पाठ्यपुस्तक में संकलित कबीरदास की 'साखियों' का सार अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर-कबीरदास के दोहों को 'साखी' कहा जाता है। उन्होंने अपनी इन साखियों में बताया है कि ईश्वर के साक्षात्कार के बाद मन रूपी मानसरोवर प्रेम और आनंद से परिपूर्ण हो गया है। इसमें जीव रूपी हंस मुक्ति रूपी मोती चुग रहा है । कबीरदास है कि जब एक ईश्वर-प्रेमी दूसरे ईश्वर प्रेमी से मिलता है, तब विषय-वासनाओं रूपी विष अमृत में बदल जाता है। वहाँ ईश्वरीय प्रेम की धारा प्रवाहित होने लगती है। कबीरदास ने यह भी बताया है कि ईश्वर की भक्ति सहज रूप में करनी चाहिए तथा संसार की चिंता नहीं करनी चाहिए। इस संसार में सभी लोग पक्ष और विपक्ष के विवाद में पड़कर ब्रह्म को भूल गए हैं। जो व्यक्ति निरपेक्ष होकर ईश्वर का भजन करता है, वह सच्चा संत कहलाता है। इसी प्रकार हिंदू और मुसलमान अथवा राम और खुदा के विवाद में न पड़कर जो सच्चे मन से ईश्वर के नाम का स्मरण करता है, वही वास्तव में मनुष्य का जीवन जीता है। जब मनुष्य सांप्रदायिक भावों को त्यागकर समन्वय की भावना को ग्रहण करता है तो उसके लिए काबा काशी और राम रहीम बन जाता इसलिए समन्वय अथवा समभाव अपनाकर ही ईश्वर की प्राप्ति की जा सकती है। मनुष्य उच्च कुल में जन्म लेने से नहीं, अपितु उच्च या सत्कर्म करने से ही ऊँचा या महान् बनता है। बुरे कर्म करने वाला व्यक्ति कभी महान् नहीं बन सकता।
110 अर्थग्रहण एवं सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर
साखियाँ
1. मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं ।
मुकताफल मुकता चुगै, अब उड़ि अनत न जाहिं ॥
शब्दार्थ-मानसरोवर = एक झील (यहाँ हृदय) । सुभर = भरा हुआ। केलि = क्रीड़ाएँ । मुकता = मोती । अनत = अन्यत्र, कहीं ओर।
प्रश्न (1) कवि एवं कविता का नाम लिखिए।
(2) प्रस्तुत साखी की व्याख्या एवं भावार्थ लिखिए।
(3) प्रस्तुत साखी का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
(4) प्रस्तुत साखी के काव्य-सौंदर्य शिल्प-सौंदर्य पर प्रकाश डालिए ।
(5) मानसरोवर में कौन क्रीड़ाएँ करता है ?
(6) कौन मुकता चुगता है ?
उत्तर- (1) कवि-कबीरदास । कविता-साखी ।
(2) व्याख्या - कवि कहता है कि मेरा हृदय रूपी मानसरोवर भक्ति रूपी जल से परिपूर्ण है अर्थात भरा हुआ है। उसमें जीवात्मा रूपी हंस क्रीड़ाएँ कर रहा है। वह क्रीड़ाएँ करता हुआ मुक्ति रूपी मोती चुग रहा है। वह उसमें इतना लीन है कि अब उसे छोड़कर कहीं ओर नहीं जाएगा।
भावार्थ- कवि के कहने का भाव है कि ईश्वरीय ज्ञान होने पर आत्मा ईश्वर भक्ति में लीन रहती है।
(3) साधक साधना करते हुए भगवद्-प्रेम में लीन है। परमात्मा से साक्षात्कार होने पर अब वह अनूठे आनंद में मग्न है। इस आनंद को छोड़कर वह किसी अन्य देवी-देवता की शरण में नहीं जाएगा।
(4) (क) भाषा सरल, सहज एवं प्रवाहमयी है।
(ख) दोहा छंद का प्रयोग है।
(ग) रूपक अलंकार है।
(घ) 'मुकताफल मुकता' में अनुप्रास अलंकार है।
(ङ) प्रस्तुत साखी संक्षिप्त होते हुए भी गहन अर्थ को व्यक्त करने में सफल सिद्ध हुई है।
(5) मानसरोवर (हृदय) में जीवात्मा रूपी हंस क्रीड़ाएँ करता है।
(6) जीवात्मा रूपी हंस मुकता चुगता है।
2. प्रेमी ढूँढ़त मैं फिरौं, प्रेमी मिले न कोइ ।
प्रेमी को प्रेमी मिले, सब विष अमृत होइ ॥
शब्दार्थ- प्रेमी प्रेम करने वाला । कौं = को । विष = जहर।
प्रश्न (1) कवि एवं कविता का नाम लिखिए।
( 2 ) प्रस्तुत साखी की व्याख्या एवं भावार्थ लिखिए।
(3) प्रस्तुत साखी का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए ।
(4) प्रस्तुत साखी के काव्य-सौंदर्य / शिल्प-सौंदर्य पर प्रकाश डालिए ।
(5) यह दोहा किसने किसको कहा है ?
(6) सब विष अमृत कब हो जाता है ?
उत्तर - (1) कवि-कबीरदास । कविता-साखी ।
(2) व्याख्या–प्रस्तुत साखी में कवि ने ईश्वर-प्रेमी के गुणों एवं संगति के प्रभाव को अभिव्यक्त किया है। कवि कहता है कि मैं भगवान के प्रेमी को ढूँढता फिरता हूँ, किंतु मुझे कोई सच्चा प्रेमी नहीं मिला। जब भगवान के एक प्रेमी से दूसरा प्रेमी मिलता है, तब विषय-वासनाओं का सारा विष अमृत रूप में बदल जाता है, क्योंकि तब ईश्वर के प्रेम की धारा बहने लगती है। भक्ति वासना को भी अमृत रूप में परिवर्तित कर देती है।
भावार्थ- कवि ने भक्ति के महत्त्व को स्पष्ट किया है ।
(3) प्रस्तुत साखी में कवि ने स्पष्ट किया है कि ईश्वर प्रेमी की संगति करने से मानव मन के बुरे भाव समाप्त हो जाते हैं और वह ईश्वर से प्रेम करने लगता है। इसलिए हमें ईश्वर प्रेमी की संगति करनी चाहिए ।
(4) (क) प्रस्तुत साखी में सरल एवं सहज भाषा का प्रयोग किया गया है ।
(ख) दोहा छंद है ।
(ग) 'प्रेमी कौं प्रेमी' में अनुप्रास अलंकार है ।
(घ) प्रस्तुत साखी गायी जाने योग्य है ।
(5) प्रस्तुत दोहा कबीरदास ने जन-साधारण को समझाने के लिए कहा है ।
(6) जब एक ईश्वर-प्रेमी दूसरे ईश्वर - प्रेमी मिलता है, तब विष (वासनाएँ) भी अमृत (भक्ति) हो जाता है।
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3. हस्ती चढ़िए ज्ञान कौ, सहज दुलीचा डारि ।
स्वान रूप संसार है, भूँकन दे झख मारि ॥
शब्दार्थ- हस्ती हाथी । सहज = साधारण, सहज-साधना | दुलीचा = हाथी की कमर पर डाला जाने वाला वस्त्र | भूँकन भौंकना । झख मारि. झख मारना, व्यर्थ बोलना । स्वान =कुत्ता
प्रश्न ( 1 ) कवि एवं कविता का नाम लिखिए ।
( 2 ) प्रस्तुत साखी की व्याख्या एवं भावार्थ लिखिए ।
(3) प्रस्तुत साखी का भाव - सौंदर्य स्पष्ट कीजिए ।
(4) प्रस्तुत साखी के काव्य-सौंदर्य / शिल्प-सौंदर्य को स्पष्ट कीजिए ।
(5) कवि ने साधक को किस पर चढ़ने के लिए कहा है ?
( 6 ) कवि ने संसार को क्या कहा है और क्यों ?
उत्तर – (1) कवि-कबीरदास । कविता-साखी ।
(2) व्याख्या - प्रस्तुत साखी में कबीरदास जी ने ज्ञान प्राप्ति की पद्धति और संसार के विषय में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा है कि हमें ज्ञान रूपी हाथी पर सहज पद्धति रूपी दुलीचा डालकर चढ़ना चाहिए अर्थात हमें प्रभु-भक्ति सहज ढंग से करनी चाहिए। संसार में भक्ति के अनेक ढंग बताए गए हैं, हमें उनकी ओर ध्यान नहीं देना चाहिए। यह संसार तो कुत्ते की भाँति है, जो भौंकता रहता है। हमें इसकी ओर ध्यान न देकर ईश्वर भक्ति में अपने मन को लगाए रखना चाहिए ।
भावार्थ- कवि ने साधक को अपनी ज्ञान-साधना में लीन रहने का उपदेश दिया है। उसे संसार की चिंता नहीं करनी चाहिए कि वह उसे क्या कहता है?
(3) कवि के कहने का भाव है कि हमें ईश्वर को प्राप्त करने के लिए सहज रूप से भक्ति करनी चाहिए। हठ योग आदि पद्धति के द्वारा शरीर को कष्ट नहीं देना चाहिए। इससे ईश्वर की प्राप्ति संभव नहीं है। हमें सांसारिक आकर्षणों व वाद-विवादों की ओर ध्यान न देकर अपना मन प्रभु-भक्ति में लगाए रखना चाहिए।
(4) (क) प्रस्तुत साखी में कवि ने सरल एवं भावानुकूल भाषा का प्रयोग किया है।
(ख) दोहा छंद है ।
(ग) प्रथम पंक्ति में रूपक अलंकार का प्रयोग किया गया है ।
(घ) 'झख मारि' मुहावरे का सुंदर प्रयोग किया गया है।
(ङ) कथन की सादगी एवं सच्चाई देखते ही बनती है।
(5) कवि ने साधक को ज्ञान रूपी हाथी पर चढ़ने के लिए कहा है ।
(6) संसार को कवि ने स्वान कहा है, क्योंकि वह स्वान की भाँति व्यर्थ बोलता रहता है ।
4. पखापखी के कारनै, सब जग रहा भुलान ।
निरपख होइ के हरि भजै, सोई संत सुजान ।।
शब्दार्थ - पखापखी - पक्ष तथा विपक्ष । कारनै = कारण । सुजान = बुद्धिमान | सोई = वही | निरपख = निष्पक्ष, सच्चे मन से । हरि = ईश्वर ।
प्रश्न ( 1 ) कवि एवं कविता का नाम लिखिए।
( 2 ) प्रस्तुत साखी की व्याख्या एवं भावार्थ लिखिए ।
(3) प्रस्तुत साखी का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
(4) प्रस्तुत साखी के काव्य-सौंदर्य / शिल्प-सौंदर्य को स्पष्ट कीजिए ।
( 5 ) कबीर की दृष्टि में सारा संसार किसको और क्यों भूला हुआ है ?
( 6 ) सुजान संत किसे कहा गया है ?
उत्तर - (1) कवि- क़बीरदास । कविता-साखी ।
(2) व्याख्या - प्रस्तुत साखी में कबीरदास ने निष्पक्ष भाव या समभाव से ईश्वर की भक्ति करने का उपदेश दिया है। कबीरदास का कथन है कि यह संपूर्ण संसार ईश्वर के अस्तित्व या निर्गुण- सगुण के पक्ष-विपक्ष की उलझन में फँसा हुआ है। इसलिए वह ईश्वर के सत्य स्वरूप को ही भूल गया है। जो लोग निष्पक्ष होकर ईश्वर का भजन करते हैं, वे ही सुजान संत कहलाते हैं अर्थात सच्चे संत शांत एवं समभाव से ईश्वर में ध्यान लगाकर भक्ति करते हैं ।
भावार्थ- कबीरदास के मतानुसार वाद-विवाद, मत-मतान्तर आदि को त्यागकर ही ईश्वर की सच्ची भक्ति संभव है।
(3) प्रस्तुत साखी का प्रमुख विषय ईश्वर भक्ति की पद्धति और सच्चे संत की पहचान बताना है। प्रस्तुत साखी में कवि ने ईश्वर की भक्ति समभाव से करने का उपदेश दिया है। ईश्वर के स्वरूप के पक्ष-विपक्ष में बहस करने वाले लोग उसके सच्चे रूप या सार तत्त्व को भूल जाते हैं। इसलिए किसी विवाद में न फँसकर पूर्ण लगन से ईश्वर के नाम का स्मरण करना चाहिए।
(4) (क) प्रस्तुत साखी सच्चे संत की पहचान करवाती है ।
(ख) कवि के कथन की सच्चाई पाठक के मन को प्रभावित करती है ।
(ग) भाषा सरल, सहज एवं प्रवाहयुक्त है।
(घ) संपूर्ण साखी में अन्त्यानुप्रास अलंकार है ।
(ङ) 'सोई संत सुजान' में अनुप्रास अलंकार का प्रयोग किया गया है ।
(5) कबीर की दृष्टि में सारा संसार वाद-विवाद एवं पक्ष-विपक्ष के कारण ईश्वर को भूल गया है।
(6) जो व्यक्ति निष्पक्ष भाव से ईश्वर की भक्ति करता है, वही सुजान संत है।
5. हिंदू मूआ राम कहि, मुसलमान खुदाइ ।
कहै कबीर सो जीवता, जो दुहुँ के निकटि न जाइ ।।
शब्दार्थ- मूआ = मरना । जीवता = जीवित | दुहुँ = दोनों ।
प्रश्न (1) कवि एवं कविता का नाम लिखिए।
( 2 ) प्रस्तुत साखी की व्याख्या एवं भावार्थ लिखिए।
(3) प्रस्तुत साखी के भाव सौंदर्य को स्पष्ट कीजिए ।
( 4 ) प्रस्तुत साखी में निहित काव्य-सौंदर्य / शिल्प-सौंदर्य को स्पष्ट कीजिए ।
( 5 ) कबीर ने किसे जीवित कहा है ?
(6) हिंदू और मुसलमान ईश्वर को किन-किन नामों से पुकारते हैं ?
उत्तर-(1) कवि-कबीरदास । कविता-साखी ।
(2) व्याख्या - प्रस्तुत साखी में कबीरदास ने बताया है कि हिंदू राम नाम रटकर अपने संप्रदाय (धर्म) की श्रेष्ठता के प्रतिपादन में मर मिटे तो मुसलमान ख़ुदा को श्रेष्ठ बताने के प्रयास में नष्ट हो गए। कबीरदास के अनुसार जीवित व्यक्ति तो वे ही हैं, जो दोनों नामों को एक ब्रह्म मानकर इस विवाद में नहीं पड़ते कि कौन श्रेष्ठ है ।
भावार्थ-कवि ने हिंदू-मुसलमान के राम और रहीम के विवाद को असत्य बताते हुए निष्पक्ष भाव से भक्ति करने पर बल दिया है।
(3) प्रस्तुत साखी में कबीरदास जी ने स्पष्ट किया है कि राम तथा खुदा, दोनों भिन्न नहीं हैं। दोनों एक ही हैं। इस विवाद को खड़ा करना उचित नहीं है। उनकी दृष्टि में दोनों में एक ही ब्रह्म को मानकर जो उसकी भक्ति करता है, वही सच्चा साधक या भक्त होता है।
(4) (क) भाषा सरल एवं भावानुकूल है।
(ख) भावों की गहनता देखते ही बनती है ।
(ग) अन्त्यानुप्रास अलंकार है ।
(घ) 'कहै कबीर' में अनुप्रास अलंकार है ।
(ङ) शब्द चयन सार्थक एवं विषयानुकूल है।
(5) कबीर ने उसे जीवित कहा है, जो राम व खुदा की श्रेष्ठता के विवाद में न उलझकर, दोनों में एक ही ब्रह्म को स्वीकार करके उसकी सच्चे मन से भक्ति करता है।
(6) हिंदू 'राम' और मुसलमान 'खुदा' कहकर ईश्वर को पुकारते हैं ।
6. काबा फिरि कासी भया, रामहिं भया रहीम।
मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीम ॥
शब्दार्थ- काबा = मुसलमानों का तीर्थ स्थल । कासी = हिंदुओं का तीर्थ स्थान | जीम = खाना ।
प्रश्न (1) कवि तथा कविता का नाम लिखिए।
(2) प्रस्तुत साखी की व्याख्या एवं भावार्थ लिखिए।
(s) प्रस्तुत साखी के भाव-सौंदर्य पर प्रकाश डालिए ।
(4) प्रस्तुत साखी के काव्य सौंदर्य / शिल्प-सौंदर्य को स्पष्ट कीजिए ।
(5) कबीर के अनुसार किस दृष्टि से काबा व काशी में अंतर नहीं रह जाता ?
( 6 ) 'मोट चून' किसे कहा गया है ?
उत्तर - (1) कवि-कबीरदास । कविता-साखी ।
(2) व्याख्या- कबीरदास का कथन है कि मध्यमार्गी प्रवृत्ति से मुसलमानों के तीर्थ स्थल काबा और हिंदुओं के तीर्थ स्थान काशी में कोई अंतर नहीं रह जाता। दोनों के आराध्य राम और रहीम भी एक ही हो जाते हैं। इस प्रकार विभिन्न विरोधी विचारधाराएँ या मत, जो पहले मोटे आटे के समान भद्दे लगते थे, मध्यम मार्ग के अनुसरण से सुंदर मैदे जैसे लगने लगे। इससे उत्पन्न आनंद का कबीर उपभोग कर रहा है।
भावार्थ- कबीरदास मध्यम मार्ग को अपनाने का उपदेश देते हैं। उनके अनुसार राम और रहीम, काबा और काशी में कोई अंतर नहीं है।
(3) प्रस्तुत साखी में कबीरदास जी ने स्पष्ट किया है कि समन्वयवादी भावना या मध्यम मार्ग को अपनाने में ही जीवन का सच्चा सुख तथा आनंद है।
(4) (क) भाषा सरल एवं भावानुकूल है।
(ख) 'काबा फिरि कासी...' में अनुप्रास अलंकार है।
(ग) दोहा छंद का प्रयोग है।
(घ) प्रस्तुत साखी में कवि की गहन एवं सच्ची अनुभूति व्यक्त हुई है।
(5) कबीर के अनुसार मध्यम प्रवृत्ति से काबा व काशी में कोई अंतर नहीं रह जाता।
(6) कबीरदास ने विभिन्न विरोधी विचारधाराओं को मोट चून कहा है, क्योंकि वे भद्दी प्रतीत होती हैं।
7. ऊँचे कुल का जनमिया, जे करनी ऊँच न होइ ।
सुबरन कलस सुरा भरा, साधू निंदा सोइ ॥
शब्दार्थ- करनी = कर्म | सुबरन = सुंदर रंग या स्वर्ण | कलस = घड़ा। सुरा = शराब। सोइ = उसकी ।
प्रश्न (1) कवि तथा कविता का नाम लिखिए।
( 2 ) प्रस्तुत साखी का संदर्भ लिखिए।
(3) प्रस्तुत साखी की व्याख्या एवं भावार्थ अपने शब्दों में लिखिए।
(4) प्रस्तुत साखी में निहित काव्य-सौंदर्य/शिल्प-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए ।
(5) ऊँचे कुल में पैदा होने का महत्त्व कैसे नहीं होता ?
( 6 ) साधुजन किसकी निंदा करेंगे ?
(7) प्रस्तुत साखी के भाव-सौंदर्य को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर - ( 1 ) कवि-कबीरदास । कविता-साखी ।
(2) कबीरदास द्वारा रचित प्रस्तुत साखी में बुरी संगति के दुष्प्रभाव को स्वर्ण कलश और मदिरा का उदाहरण देकर अभिव्यक्त किया गया है।
(3) व्याख्या - प्रस्तुत साखी में कबीरदास जी ने बताया है कि यदि मानव के कर्म अच्छे नहीं हैं तो ऊँचे कुल में पैदा होने से क्या होता है अर्थात आदमी अच्छे कार्यों से ही बड़ा होता है। सोने का घड़ा यदि शराब से भरा हुआ है तो भी साधु-जन उसकी निंदा करेंगे, उसे बुरा बताएँगे ।
भावार्थ-कहने का भाव है कि व्यक्ति जन्म से नहीं, अपितु गुणों से ऊँचा या महान होता है। अतः हमें सत्कर्म करने चाहिएँ।
(4) (क) प्रस्तुत साखी की भाषा सरल एवं भावानुकूल है।
(ख) दोहा छंद है।
(ग) 'सुरा भरा' में अनुप्रास अलंकार है।
(घ) शब्दों का चयन भाव के अनुकूल किया गया है I
(ङ) भावों की गंभीरता द्रष्टव्य है।
(5) कोई व्यक्ति ब्राह्मण कुल में पैदा होकर भी यदि नीच कर्म करे तो उसे ऊँचे कुल में पैदा होने का महत्त्व नहीं मिल सकता है।
(6) साधुजन ऊँचे कुल में जन्मे नीच कर्म करने वाले की निंदा ही करते हैं।
(7) कवि ने अत्यंत सरल शब्दों में महान भाव को उद्घाटित किया है कि ऊँचे कुल में जन्म लेने से कोई बड़ा नहीं हो सकता। व्यक्ति अपने कर्मों से बड़ा होता है। अतः हमें अच्छे कर्म करने चाहिएँ तथा बुरे कर्मों या बुरी संगत से दूर रहना चाहिए । यही हमारे जीवन का लक्ष्य होना चाहिए।
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सबद ( पद )
सबद का सार
प्रश्न- पाठ्यपुस्तक में संकलित कबीरदास के 'सबद' का सार लिखिए।
उत्तर - कबीरदास ने प्रथम पद में बताया है कि परमात्मा कहीं बाहर नहीं, अपितु प्राणियों के हृदय में तथा कण-कण में रमा हुआ है। उसे मंदिर, मस्जिद, देवालय आदि में नहीं ढूँढा जा सकता। उसे किसी क्रिया-कर्म से भी प्राप्त नहीं किया जा सकता और न ही ईश्वर योग तथा वैराग्य धारण करने से प्राप्त होता है, अपितु यदि कोई भक्त उसे सच्चे मन से खोजने का प्रयास करे तो ईश्वर एक पल में ही मिल सकता है। कबीरदास का विश्वास है कि परमात्मा तो हर साँस तथा हर प्राण में निवास करता है। उसे बाहर नहीं, अपितु अपने हृदय में ही ढूँढा जा सकता है।
दूसरे पद में कबीरदास ने बताया है कि अज्ञान ही सांसारिक मोह-माया के बंधन का मूल कारण है। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात साधक माया के बंधनों से मुक्त हो जाता है। आँधी और टाटी या छान के रूपक के माध्यम से कवि ने बताया है कि जिस प्रकार आँधी आने पर छान (झोंपड़ी) की फूस से बनी टाटियाँ उड़ जाती हैं, वैसे ही ज्ञान की आँधी आने से भ्रम की टाटी बँधी नहीं रह सकती। ज्ञान उत्पन्न होने से साधक के मन के सभी भ्रम स्वतः नष्ट हो जाते हैं। इस ज्ञान की आँधी के पश्चात प्रभु-भक्ति की वर्षा होती है, जिसमें साधक लीन होकर आनंदानुभूति प्राप्त करने लगता है। साधक के मन में ईश्वर का सच्चा स्वरूप भी स्पष्ट हो जाता है और वह फिर कभी भ्रम में नहीं फँसता ।
अर्थग्रहण एवं सराहना संबंधी प्रश्नोत्तर
मोकों कहाँ ढूँढे बंदे, मैं तो तेरे पास में।
ना मैं देवल ना मैं मसजिद, ना काबे कैलास में।
ना तो कौने क्रिया-कर्म में, न ही योग बैराग में।
खोजी होय तो तुरतै मिलिहों, पल भर की तालास में।
कहैं कबीर सुनो भई साधो, सब स्वाँसों की स्वाँस में ॥
शब्दार्थ- मोकों = मुझे। बंदे = व्यक्ति । क्रिया-कर्म = सांसारिक आडंबर। योग = योग-साधना | बैराग • देवालय, मंदिर काबा = मुसलमानों का तीर्थ स्थान | कैलास =का नाम । तालास = खोज । स्वाँस = साँस । खोजी = खोजने वाला।
प्रश्न (1) कवि तथा कविता का नाम लिखिए।
( 2 ) प्रस्तुत पद की व्याख्या एवं भावार्थ लिखिए।
(3) प्रस्तुत पद का भाव-सौंदर्य लिखिए।
( 4 ) प्रस्तुत पद में निहित काव्य-सौंदर्य / शिल्प-सौंदर्य को स्पष्ट कीजिए।
(5) भगवान कहाँ-कहाँ नहीं है ?
(6) कबीरदास ने ईश्वर को कहाँ खोजने का उपदेश दिया है ?
उत्तर - (1) कवि - कबीरदास। कविता-साखी ।
(2) व्याख्या - निराकार ब्रह्म मनुष्य को कहता है, हे बंदे तू मुझे अपने से बाहर कहाँ ढूँढ़ता फिरता है। मैं तो तेरे अत्यंत समीप हूँ। न तो मैं किसी मंदिर या मस्जिद में रहता हूँ, न ही मुसलमानों के पवित्र तीर्थ स्थान काबा में निवास करता हूँ और न ही हिंदुओं के कैलाश पर्वत पर । इसलिए इन स्थानों पर मुझे ढूँढना व्यर्थ है। मैं न सांसारिक क्रिया-कर्म अर्थात कर्मकांड करने से प्राप्त होता हूँ, न मैं योग-साधना से मिल सकता हूँ और न ही संसार को त्यागकर वैराग्य धारण करने से या संन्यासी बनने से। ये सब तो बाहरी दिखावे हैं। हें मनुष्य! मैं तो हर स्थान एवं कण-कण में समाया हुआ हूँ। यदि कोई सच्चा भक्त खोजने वाला हो तो मैं एक पल-भर की अर्थात बहुत थोड़े समय की तलाश में मिल सकता हूँ। कहने का भाव है कि जिसके मन में मुझे प्राप्त करने सच्ची लगन होती है, उसे मैं तुरंत ही मिल सकता हूँ। कबीरदास संतों और भक्तों को कहते हैं, हे संतो! सुनो, वह परमात्मा सब प्राणियों में विद्यमान है। जैसे साँस का निवास हमारे भीतर है, वैसे ही परमात्मा का निवास भी हमारे हृदय में है। इसलिए परमात्मा को हमें बाहर नहीं, अपितु अपने भीतर हृदय में ही खोजने या अनुभव करने की कोशिश करनी चाहिए।
भावार्थ - कवि ने ईश्वर प्राप्ति के लिए बाह्य दिखावे, तीर्थ, व्रत, उपवास आदि साधनों की अपेक्षा सच्चे मन से भक्ति करने की प्रेरणा दी है क्योंकि ईश्वर तो हर प्राणी की हर साँस में विद्यमान है।
(3) ईश्वर मंदिर, मस्जिद, काबा व कैलाश आदि तीर्थों की अपेक्षा मनुष्य के हृदय में रहता है। इसलिए उसे बाहरी दिखावा करके प्राप्त नहीं किया जा सकता, अपितु सच्चे मन और लगन से अपने हृदय में ही देखा व प्राप्त किया जा सकता है।
(4) (क) ईश्वर की सर्वव्यापकता का उल्लेख किया गया है।
(ख) संपूर्ण पद में अनुप्रास अलंकार का प्रयोग है।
(ग) स्वर-मैत्री के कारण भाषा लययुक्त हो गई है।
(घ) भाषा अत्यंत सरल, सहज एवं भावानुकूल है।
(ङ) शब्द चयन विषयानुकूल है।
(5) कबीरदास के अनुसार भगवान केवल मस्जिद, मंदिर, क्रियाक्रर्म, योग या विराग आदि बाह्य स्थलों पर नहीं मिलता।
(6) कबीरदास ने बताया है कि ईश्वर प्रत्येक प्राणी के हृदय में समाया हुआ है, इसलिए ईश्वर को हमें अपने हृदय में ही खोजना चाहिए ।
2. संतौं भाई आई ग्याँन की आँधी रे ।
भ्रम की टाटी सबै उड़ाँनी, माया रहै न बाँधी ॥
हिति चित्त की द्वै थूँनी गिराँनी, मोह बलिंडा तूटा ।
त्रिस्ना छाँनि परि घर ऊपरि, कुबधि का भाँडाँ फूटा ॥
जोग जुगति करि संतौं बाँधी, निरचू चुवै न पाँणी ।
कूड़ कपट काया का निकस्या, हरि की गति जब जाँणी ।
आँधी पीछे जो जल बूठा, प्रेम हरि जन भींनाँ।
कहै कबीर भाँन के प्रगटे उदित भया तम खीनाँ ॥
शब्दार्थ- टाटी = छान के चारों ओर फूस की लगाई गई ओट या परदा । उड़ाँनी = उड़ गई । चित्त (दो विचारों में फँसा व्यक्ति) | यूँनी = दो खंभे (स्तंभ)। बलिंडा = बँडेर, बीच की बल्ली जिस पर छान टिकी रहती है। तूटा = टूट गया। त्रिस्नाँ = इच्छा, कामना । कुबधि = बुरी बुद्धि । भाँडाँ फूटा = भेद खुलना । जोग= योग। जुगति = युक्ति । निरचू = थोड़ा भी। कूड़ कपट = कपट का कूड़ा । काया = शरीर। निकस्या भाँन = सूर्य। तम= अंधकार (अज्ञान)। खीनाँ = नष्ट हो गया । जल बूठा = जल बरसना ।
प्रश्न (1) कवि एवं कविता का नाम लिखिए।
(2) प्रस्तुत पद का संदर्भ स्पष्ट कीजिए ।
( 3 ) प्रस्तुत पद की व्याख्या एवं भावार्थ लिखिए।
(4) प्रस्तुत काव्य-पंक्तियों में निहित काव्य-सौंदर्य/शिल्प-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए ।
(5) प्रस्तुत पद के भाव-सौंदर्य पर प्रकाश डालिए ।
(6) भ्रम की टाटी कब और क्यों टूटती है ?
(7) ज्ञान प्राप्त होने पर कौन-से भाव नष्ट हो जाते हैं ?
उत्तर - (1) कवि-कबीरदास । कविता - सबद ( पद ) ।
( 2 ) प्रस्तुत पद में कवि ने स्पष्ट किया है कि अज्ञान ही सांसारिक मोह-माया के बंधनों का मुख्य कारण है। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात साधक माया के बंधनों से मुक्त हो जाता है।
(3) व्याख्या- कबीरदास ने कहा है कि हे संतो! ज्ञान रूपी आँधी आ गई है। ज्ञान की आँधी से भ्रम रूपी छप्पर से बनी छत उड़कर नष्ट हो गई है। अब माया भी इस भ्रम को बाँध नहीं सकती। कहने का भाव है कि ज्ञान प्राप्त हो जाने पर साधक के मन के सभी भ्रम नष्ट हो जाते हैं। ज्ञान की आँधी से दुविधा (दुविधाप्रति) की दोनों थूनियाँ गिर गई हैं। मोह रूपी बल्ली भी टूटकर गिर गई है। ज्ञान की स्थिति उत्पन्न होने पर मोह और दुविधा के भाव नष्ट हो जाते हैं। ज्ञान प्राप्त हो जाने पर मानव-मन में रहने वाली इच्छाएँ और कुबुद्धि (अविवेक) भी नष्ट हो जाते हैं। किन्तु संतों ने योग की युक्ति के द्वारा ऐसी झोंपड़ी बाँधी जिसमें से पानी नहीं टपक सकता अर्थात मानव सांसारिक कामनाओं की ओर नहीं भटक सकता। इस ज्ञान रूपी आँधी के पश्चात वर्षा होती है। उसमें साधक पूर्णतः भीग जाता है अर्थात व्यक्ति प्रभु-भक्ति में पूर्णतः लीन हो जाता है। उसी से साधक को आनंद की अनुभूति होती है। कबीरदास जी कहते हैं कि ज्ञान की आँधी के पश्चात प्रभु रूपी सूर्य उदय होता है तथा सभी प्रकार का अज्ञान रूपी अंधकार नष्ट हो जाता है। कहने का भाव यह है कि ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति के पश्चात अज्ञान नष्ट हो जाता है और साधक के मन में आनंद उत्पन्न हो जाता है।
भावार्थ- कबीरदास ने ज्ञान व आँधी के रूपक के माध्यम यह समझाने का सफल प्रयास किया है कि जब व्यक्ति को ईश्वरीय ज्ञान हो जाता है तब उसको माया अपने बंधन व भ्रम में नहीं जकड़ सकती। उसके सांसारिक बंधन व भ्रम स्वतः ही नष्ट हो जाते हैं।
(4) (क) कवि ने आँधी के रूपक के माध्यम से ज्ञान के महत्त्व पर प्रकाश डाला है।
(ख) समूचे पद में रूपक एवं अनुप्रास अलंकारों का प्रयोग किया गया है।
(ग) भाषा सरल, सहज एवं भावानुकूल है।
(घ) शब्द-चयन विषय के अनुरूप है।
(5) प्रस्तुत पद में कवि ने ज्ञान के महत्त्व को उजागर किया है। ज्ञान की प्राप्ति पर ही मानव-मन से सभी दुविधाएँ और भ्रम समाप्त हो जाते हैं। मोह-माया की वास्तविकता स्पष्ट हो जाने पर साधक उसको त्यागकर प्रभु-भक्ति में लीन हो जाता है। उस स्थिति में उसे सुख एवं आनंद की अनुभूति होती है।
(6) ज्ञान की आँधी आने पर मानव मन में व्याप्त भ्रम की टाटी टूट जाती है।
(7) ज्ञान प्राप्त होने पर मोह और दुविधा के भाव नष्ट हो जाते हैं।
kaafi achi articale hai
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