Surdas Ke Pad Class 10 | Class 10 Hindi Surdas Ke Pad Explanation | सूरदास के पद Class 10

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Surdas Ke Pad Class 10 | Class 10 Hindi Surdas Ke Pad Explanation | सूरदास के पद Class 10 



सूरदास के पद

पद का सार

प्रश्न- पाठ्यपुस्तक में संकलित 'सूरदास' द्वारा रचित 'पदों' का सार लिखिए।

उत्तर -सूरदास द्वारा रचित इन पदों में गोपियों का श्रीकृष्ण के प्रति गहन प्रेम व्यक्त हुआ है। श्रीकृष्ण के मथुरा चले जाने पर गोपियों अत्यंत व्याकुल हो उठती हैं। वे श्रीकृष्ण के मित्र ऊधौ को कभी उलाहना देती हैं तो कभी उस पर ताना कसती हैं। वे ऊधौ से कहती हैं कि तुम बहुत भाग्यशाली हो कि तुम किसी से प्रेम आदि के चक्कर में नहीं पड़े हो। तुमने श्रीकृष्ण के साथ रहते हुए भी उनसे प्रेम नहीं किया। हम ही ऐसी मूर्ख हैं कि श्रीकृष्ण के प्रेम में ऐसी चिपटी हुई हैं जैसी चींटियाँ गुड से चिपक जाती हैं।


दूसरे पद में गोपियाँ ऊधौ को उलाहना देती हुई कहती हैं कि अब हमारे मन की आशा मन में रह गई है। जिस कृष्ण के लौट आने की आशा हमारे मन में बनी हुई थी, वह तुम्हारी योग -साधना के संदेश को सुनकर समाप्त हो गई है। अब हम श्रीकृष्ण के वियोग में किसी भी प्रकार का धैर्य नहीं रख सकती क्योंकि अब धैर्य का कोई आधार ही नहीं रह गया है।


तीसरे पद में गोपियाँ श्रीकृष्ण को अपने जीवन का आधार बताती हैं । जिस प्रकार हारिल पक्षी अपने मुख में पकड़े हुए तिनके को अपने जीवन का आधार मानता है; उसी प्रकार वे दिन-रात श्रीकृष्ण के नाम को रटती रहती हैं। योग का नाम तो उन्हें कड़वी ककड़ी के समान कड़वा लगता है। योग-साधना तो उनके लिए है जो प्रभु श्रीकृष्ण से प्रेम नहीं करते चतुर्थ पद में गोपियाँ श्रीकृष्ण पर करारा व्यंग्य करती हुई कहती हैं कि वह उनके साथ राजनीति खेल रहा है। वह जन्म से ही चालाक था और अब तो राजनीति के दाँव- पेच भी जान गया है। पहले राजनीतिज्ञ जनता की भलाई के लिए आगे-आगे फिरते थे, किंतु अब वे प्रजा के प्रति अन्याय करते हैं । ऐसे ही श्रीकृष्ण हमें योग-साधना करने के लिए कहकर हमारे प्रति अन्याय ही तो कर रहे हैं। श्रीकृष्ण का यह व्यवहार किसी भी प्रकार उचित नहीं है।


पद्यांश के आधार पर अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर

|1| ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी।

अपरस रहत सनेह तगा ते, नाहिन मन अनुरागी। 

पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दारगी।

ज्यों जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकों लागी।

प्रीति-नदी में पाउँ न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी।

'सूरदास' अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यों पागी ॥


शब्दार्थ

बडभागी = भाग्यशाली। अपरस = अछूता, दूर, अलिप्त। सनेह = प्रेम । तगा = धागा, बंधन। पुरइनि = कमल। पात = पत्ता। रस = जल। देह = शरीर। न दागी = दाग नहीं लगता। माहँ = में, भीतर। गागरि = मटकी। ताकों = उसको। परागी = मुग्ध होना। अबला = नारी। भोरी = भोली। गुर = गुड़। चाँटी = चींटियाँ। पागी = लिपटना।


प्रश्न - (क) कवि तथा कविता का नाम लिखिए।

(ख) प्रस्तुत पद के प्रसंग पर प्रकाश डालिए।

(ग) प्रस्तुत पद की व्याख्या कीजिए।

(घ) 'अति बड़भागी' में निहित व्यंग्य-भाव को स्पप्ट कीजिए।

(ङ) गोपियों ने किसके प्रति अपना प्रेमभाव व्यक्त किया ?

(च) 'सनेह तगा तैं अपरस रहना'-सौभाग्य है या दुर्भाग्य? स्पष्ट कीजिए।

(छ) 'नाहिन मन अनुरागी' के माध्यम से किस पर और क्यों व्यंग्य किया गया है ?

(ज) इस पद में किस 'प्रीति नदी' की ओर संकेत किया गया है?

(झ) कौन स्वयं को भोरी और अबला समझती हैं और क्यों ?

(স) 'गुर चाँटी ज्यौं पागी' के माध्यम से गोपियों की किस भावना को दर्शाया गया है ?

(ट) इस पद में प्रयुक्त अलंकारों के नाम लिखिए।

(ठ) प्रस्तुत पद का काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।

(ड) इस पद के भाव-सौंदर्य को स्पष्ट कीजिए।

(ढ) इस पद में विद्यमान गेय तत्त्व को स्पष्ट कीजिए।

(ण) प्रस्तुत पद में प्रयुक्त भाषा की विशेषताएँ लिखिए।


उत्तर-(क) कवि का नाम-सूरदास।              कविता का नाम-पद।


(ख) प्रस्तुत पद हमारी पाठ्यपुस्तक 'क्षितिज' भाग 2' में से लिया गया है। 'सूरदास' द्वारा रचित इस पद में उस समय का उल्लेख किया गया है जब श्रीकृष्ण मथुरा जाकर वहाँ के राजा बन जाते हैं। वे गोपियों को योग-मार्ग की शिक्षा देने के लिए अपने मित्र उधौ को वृंदावन भेजते हैं । श्रीकृष्ण का योग-मार्ग अपनाने का संदेश सुनकर गोपियाँ बेचैन हो उठती हैं। उनका प्रेम आाहत हो उठता है। वे ऊधौ की बात सुनकर उस पर व्यंग्य करती हुई ये शब्द कहती हैं।


(ग) गोपियाँ श्रीकृष्ण के द्वारा भेजे गए संदेश को सुनकर ऊधौ पर व्यंग्य करती हुई कहती हैं- हे ऊधौ! तुम बहुत ही सौभाग्यशाली हो। तुम सदा ही प्रेम के बंधन से दूर रहे हो। तुमने कभी प्रेम की भावना को समझा ही नहीं । तुम्हारा मन किसी के प्रेम में डूबा ही नहीं। तुम श्रीकृष्ण के समीप रहकर भी उनके प्रेम के बंधन में नहीं बँधे। जिस प्रकार कमल का पत्ता सदा पानी में रहता है, परंतु फिर भी उस पर पानी की दाग तक नहीं लगता; उस पर जल की बुँद नहीं ठहरती। इसी प्रकार तेल की मटकी को पानी में रख दिया जाए तो उस पर भी जल की एक बूँद नहीं ठहरती अर्थात् कमल के पत्ते और तेल की मटकी पर जल की कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उसी प्रकार श्रीकृष्ण की संगति में रहते हुए भी उनके प्रेम का प्रभाव ऊधौ पर नहीं पड़ता। तुमने तो आज तक प्रेम की नदी में अपना पैर तक नहीं इुबोया। तुम्हारी दृष्टि किसी के रूप को देखकर भी उसमें नहीं उलझी। किंतु हम तो भोली अबलाएँ हैं जो श्रीकृष्ण के सरूप-सौंदर्य को देखकर उसमें उलझ गई। हम श्रीकृष्ण के प्रेम में इस प्रकार लिप्त हैं जिस प्रकार चींटियाँ गुड़ पर चिपट जाती हैं और फिर उससे कभी नहीं छूट सकती। वहीं अपने प्राण त्याग देती हैं।


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(घ) गोपियों के द्वारा प्रयुक्त 'अति बड़भागी' अपने भीतर व्यंग्य भाव समेटे हुए है। वे मजाक भाव में ऊधौ को भाग्यशाली मानती हैं क्योंकि वह श्रीकृष्ण के समीप रहकर भी उनके प्रेम के बंधन में नहीं बंध सका और न ही कभी उनके प्रेम में व्याकुल हुआ।


(ङ) गोपियों ने श्रीकृष्ण के प्रति अपना प्रेम व्यक्त किया है। उनके प्रेम की अनन्यता श्रीकृष्ण के रूप-मांधुर्य के प्रति है।


(च) स्नेह के धागे से दूर रहना अर्थात् किसी का प्रेम न पा सकना सौभाग्य नहीं, दुभर्भाग्य है। जीवन का वास्तविक सुख तो प्रेम की अनुभूति में है, न कि सांसारिक विषय- वासनाओं के भोग में।


(छ) 'नाहिन मन अनुरागी' के माध्यम से गोपियों ने उधौ पर करारा व्यंग्य किया है क्योंकि वे श्रीकृष्ण के समीप रहकर भी उनके प्रेम भाव को न समझ सके। डुबकी नहीं लगा सका।


(ज) यहाँ कवि ने प्रीति नदी के माध्यम से श्रीकृष्ण की प्रेम -भावना की ओर संकेत किया है। ऊधौ उस प्रेम नदी में कभी डुबकी नहीं लगा सका।


(झ) गोपियाँ स्वयं को भोली-भाली अबलाएँ समझती हैं क्योंकि वे श्रीकृष्ण के प्रेम में अपने-आपको छला हुआ समझती हैं। उन्होंने सच्चे हृदय से श्रीकृष्ण से प्रेम किया, किंतु श्रीकृष्ण उन्हें विना बताए मथुरा चले गए थे और वहाँ से उन्होंने योग-साधना करने का संदेश भेजा था। इसलिए गोपियाँ अपने-आपको भोली-भाली अबलाएँ समझती हैं।


(স) इस पंक्ति के माध्यम से कवि ने गोपियों के श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम और त्याग भावना को दर्शाया है।


(ट) इस पद में निम्नलिखित अलंकारों का प्रयोग किया गया है-

रूपक -प्रीति-नदी मैं पाऊँ न बोरयौ।

उपमा-गुर चाटी ज्यौं पागी।

उदाहरण-ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी।

अनुप्रास- नाहिन मन अनुरागी।

वक्रोक्ति-ऊधौ तुम हो अति बड़भागी।


(ठ) ● इस पद में गेय तत्त्व विद्यमान है।

● रूपक, उपमा, उदाहरण, अनुप्रास आदि अलंकारों का प्रयोग किया गया है।

● भाषा सरल, सहज एवं भावानुकूल है।

● कोमलकांत पदावली का प्रयोग किया गया है।


(ड) इस पद में कवि ने गोपियों के माध्यम से कृष्ण की भक्ति-भावना को अभिव्यंजित किया है। ज्ञानमार्गी अथवा योगमार्गी ऊधौ पर करारा व्यंग्य किया है। उसे प्रेम भावना से मुक्त व अनासक्त कहा है। दूसरी ओर, गोपियों को श्रीकृण्ण के प्रेम में डूबी हुई दिखाया गया है। वे श्रीकृष्ण के रूप-सौंदर्य पर आसक्त हैं और उनके मथुरा चले जाने पर अत्यंत व्याकुल हैं। वे किसी भी दशा में श्रीकृष्ण के प्रेमभाव को दूर नहीं कर सकती।


(ढ) महाकवि सूरदास द्वारा रचित यह पद 'राग-मलार' पर आधारित है। इसमें स्वर मैत्री का सुंदर प्रयोग किया गया है।


(ण) इस पद में ब्रजभाषा का सफल एवं सार्थक प्रयोग किया गया है। भाषा माधुर्यगुण संपन्न है। लक्षणा शब्ध-शक्ति का प्रयोग किया गया है। कवि ने शब्द-योजना पूर्णतः भावानुकूल की है।



[2] मन की मन ही माँझ रही।

कहिए जाइ कौन पै उधौ, नाहीं परत कही।

अवधि अधार आस आवन की, तन मन बिथा सही।

अब इन जोग संदेसनि सुनि-सुनि, बिरहिनि बिरह दही।

चाहति हुती गुहारि जितहिं तें, उत तैं धार बही।

'सूरदास' अब धीर धरहिं क्यों, मरजादा न लही॥


शब्दार्थ- 

माँझ = में । आधार= आधार; सहारा। आवन = आगमन; आने की। बिथा = व्यथा। बिरहिनि = वियोग में जीने वाली। बिरह दही = विरह की आग में जल रही। हुती = थी। गुहारि == रक्षा के लिए पुकारना। जितहिं तैं =जहाँ से। उत =उधर, वहाँ। धार = योग की प्रबल धारा। मरजादा = मर्यादा; प्रतिष्ठा। लही =  नहीं रही; नहीं रखी।


प्रश्न- (क) कवि एवं कविता का नाम लिखिए।

(ख) प्रस्तुत पद्यांश का प्रसंग स्पष्ट कीजिए।

(ग) प्रस्तुत पद्यांश की व्याख्या कीजिए।

(घ) गोपियों की कौन-सी बात मन में रह गई?

(ङ) ऊधौ के संदेश को सुनकर गोपियों की व्यथा घटने की अपेक्षा बढ़ गई, ऐसा क्यों हुआ?

(च) गोपियों को कृष्ण को गुहार लगाना अब व्यर्थ क्यों लगने लगा ?

(छ) गोपियों ने किस मर्यादा की बात कही है ?

(ज) इस पद का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।

(झ) 'धार बही' का क्या अर्थ है ?

(ज) गोपियों के लिए क्या प्रिय है और क्या अप्रिय?

(ट) गोपियाँ अधीर क्यों हो रही हैं?

(ठ) इस पद के शिल्प-सौदर्य पर प्रकाश डालिए।

(ड) इस पद में प्रयुक्त भाषा की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।


उत्तर-(क) कवि का नाम-सूरदास ।     कविता का नाम-पद ।


(ख) गोपियाँ श्रीकृष्ण से अत्यधिक प्रेम करती हैं, किंतु मथुरा में जाकर वहाँ के राजा बन जाते हैं। वे गोपियों को अपना कोई प्रेम संदेश भेजने की अपेक्षा ऊधौ के द्वारा योग-मार्ग अपनाने का सदेश भेजते हैं । यह संदेश उन्हें कटे पर नमक के समान लगता है। वे इस संदेश को सुनकर आहत हो जाती हैं तथा ऊधौ और श्रीकृष्ण पर व्यंग्य करती हैं।


(ग) विरह की पीड़ा से व्याकुल गोपियाँ श्रीकृष्ण के मित्र ऊधौ को उपालंभ देती हुई कहती हैं- हे ऊधौ ! हमारे मन की बात मन में ही रह गई है अर्थात हमें श्रीकृष्ण के लौटने की पूरी आशा थी। हम अपने मन की बात उन्हें बता देना चाहती थीं, किंतु अब उनका यह संदेश मिलने पर कि वे नहीं आ रहे; हमारे मन की बात मन में ही रह गई। हे ऊधौ! अब तुम ही बताओ कि अपने मन की बात को भला हम किसे जाकर कहें। प्रेम की वात हर किसी के सामने कही भी तो नहीं जा सकती। हम अब तक श्रीकृष्ण के लौट आने की आशा को अपने प्राणों का आधार बनाए हुए थीं। इसी उम्मीद पर तो हम तन-मन से विरह की व्यथा को सहन कर रही थीं, किंतु तुम्हारे इस योग-साधना के संदेश को सुनकर हमारी विरह-व्यथा और भी भड़क उठी है। हम विरह की आग में जली जा रही हैं। 


यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि जिधर से हम अपनी रक्षा के लिए सहारा चाह रही थीं, उधर से ही योग-साधना की धारा बह निकली है। कहने का तात्पर्य यह है कि गोपियाँ चाहती थीं कि श्रीकृष्ण आकर उनकी व्यथा को दूर करें किंतु उन्होंने ही योग-साधना का मार्ग अपनाने का संदेश भेज दिया है। इससे उनकी वियोग की ज्वाला और भी भड़क उठी है। सूरदास ने बताया है कि गोपियों कह रही हैं कि अब तो श्रीकृरष्ण ने सभी लोक-मर्यादाएँ त्याग दी हैं। उन्होंने हमारे प्रेम का निर्वाह करने की अपेक्षा हमें धोखा दिया है। भला ऐसे में हम धैर्य कैसे रखें ?


(घ) गोपियों के मन में श्रीकृष्ण के पुनः लौट आने की बात थी जो उनके संदेश के आने के पश्चात् उनके मन में रह गई। वे अब अपनी प्रेम भावना को श्रीकृष्ण के सामने प्रकट नहीं कर सकेंगी। 


(ङ) गोपियाँ श्रीकृष्ण को अत्यधिक प्रेम करती थीं। वे श्रीकृण्ण के मथुरा चले जाने पर उनके वियोग की पीड़ा में जली जा रही थीं। ऊधौ ने उन्हें योग -संदेश सुनाया और कहा कि तुम श्रीकृरष्ण को भूल जाओ और निर्गुण ईश्वर की उपासना करो। इस सन्देश को सुनकर उन्हें लगा कि श्रीकृष्ण ने उनके साथ दगा किया है । इससे उनके विरह की व्यथा घटने की अपेक्षा और भी बढ़ गई धी।


(च) गोपियों ने श्रीकृष्ण के प्रति अपना सब कुछ अर्पित कर दिया था। वे श्रीकृष्ण के बिना उनके विरह में व्याकुल थीं, कितु जब उधौ ने गोपियों को श्रीकृष्ण को भूलकर योग-साधना करने का उपदेश दिया तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। जिसको ये गुहार कर सकती थीं जब वही योग का संदेश भेज रहे हैं तो फिर उनके सामने गुहार करने का कोई लाभ नहीं हो सकता था।


(छ) गोपियाँ श्रीकृष्ण द्वारा वादा न निभाने की बात कह रही थीं। अब उनके लिए धैर्य धरना कठिन हो गया है। श्रीकृष्ण को गोपियों के प्रेम की मर्यादा का ख्याल ही नहीं है।


(ज) इस पद में कवि ने गोपियों के विरह भाव का मार्मिक चित्रण किया है। योग-साधना व निर्गुण ईश्वर की उपासना में मन लगाने के श्रीकृष्ण के सदेश को सुनकर गोपियों की विरह-वेदना और भी बढ़ जाती है। उनके मन में श्रीकृष्ण के लौट आने की आशा का आधार भी अब नष्ट हो गया है । इसलिए वे अपने-आपको अत्यंत असहाय समझने लगी थीं। अब वे शिकायत करें भी तो किससे करें क्योंकि उनकी इस दशा के लिए श्रीकृष्ण ही जिम्मेदार हैं।


(झ) 'धार बही' का यहाँ लाक्षणिक प्रयोग किया गया है। गोपियों को लगा था कि निर्गुण ईश्वर की भक्ति की धारा श्रीकृष्ण की ओर से बहकर उन तक पहुँची थी। उन्होंने ही ऊधौ को निर्गुण ईश्वर की भक्ति की धारा देकर भेजा था।

(ञ) गोपियों के लिए श्रीकृष्ण का प्रेम प्रिय है और ऊधौ की निर्गुण ईश्वर की उपासना अप्रिय है।


(ट) गोपियाँ इसलिए अधीर हो रही हैं क्योंकि उनके प्रियतम श्रीकृष्ण ने प्रेम की मर्यादा का उल्लंघन किया है। उन्होंने प्रेम निभाने की अपेक्षा प्रेम का मजाक उड़ाया और गोपियों को अपने से दूर रखने की युक्तियाँ सुझाई हैं।


(ठ) ● इस पद में ब्रजभाषा का प्रयोग किया गया है।

● वियोग शृगार का सुंदर चित्रण है।

● सदेसनि, सुनि-सुनि, बिरहिनि विरह, धीर-धरहिं में अनुप्रास अलंकार है।

● 'सुनि-सुनि' में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार का प्रयोग किया गया है।

● मध्य के लिए 'माँझ', आधार के लिए 'आधार', पड़त के लिए 'परत' आदि कोमल शब्दों का प्रयोग देखते ही बनता है।

● संपूर्ण पद में गेय तत्त्व विद्यमान है।


(ड) इस पद में ब्रजभाया का प्रयोग किया गया है। कोमलकांत शबद्दावली का सार्थक प्रयोग किया गया है। स्वर-मैत्री के प्रयोग के कारण भाषा में लय विद्यमान है। तद्भव शब्दों का विषयानुकूल प्रयोग किया गया है। भाषा में गेय तत्त्व भी है।


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[3] हमारें हरि हारिल की लकरी।

मन क्रम बचन नंदनंदन उर, यह दृढ करि पकरी।

जागत सोवत स्वप्न दिवस निसि, कान्ह-कान्ह जक री ।

सुनत जोग लागत है ऐसी, ज्यौं करुई ककरी।

सु ती व्याधि हमकों लै आए, देखी सुनी न करी।

यह तो 'सूर' तिनहिं लै सौंपौ, जिनके मन चकरी ॥


शब्दार्थ- 

हरि = भगवान श्रीकृण्ण । हारिल = एक पक्षी जो सदा आपने पंजों में एक लकड़ी थामे रहता है। लकरी = लकड़ी। दूढ़ करि = निश्वयपूर्वक । पकरी = पकड़ी हुई। दिवस = दिन। निसि = रात। कानह-कान्ह = कृष्ण-कृष्ण। जकरी = रटती रहती हैं। जोग = योग। करूई-ककरी = कडवी ककड़ी। क्रम = कर्म। नंद-नंदन = नंद का बेटा। उर = हृदय । व्याधि = रोग। तिनहिं = उन्हें। मन चकरी = मन में चक्कर; मन में दुविधा।


प्रश्न-(क) कवि और कविता का नाम लिखिए।

(ख) इस पद्याश का प्रसंग स्पष्ट कीजिए।

(ग) इस पद की व्याख्या कीजिए।

(घ) गोपियों ने अपने हरि की तुलना किससे ओर क्यों की है ?

(ड) 'मन क्रम वचन .... पकरी' का वर्णन किसके लिए आया है ? स्पष्ट कीजिए।

(च) गोपियाँ सोते-जागते, रात दिन किसका ध्यान करती हैं और क्यों ?

(छ) कवि ने इस पद में 'करुइ ककरी' किसे कहा है ?.

(ज) 'जिनके मन चकरी' का भाव स्पष्ट कीजिए।

(झ) गोपियाँ योग का सदेश किसे देने को कहती हैं और क्यों?

(ज) गोपियों ने अपनी तुलना किससे की है और क्यों ?

(य) इस पद का भाव-सोंदर्य स्पष्ट कीजिए।

(ठ) इस पद का शिल्प-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।

(ड) इस पद में प्रयुक्त किन्हीं दो अलंकारों के नाम लिखिए।


उत्तर- (क) कवि का नाम-सूरदास।             कविता का नाम-पद ।


(ख) प्रस्तुत पद हमारी पाठ्यपुस्तक "क्षितिज' भाग 2 में संकलित सूरदास के पदों में से लिया गया है। इस पद में बताया गया है कि गोपियाँ श्रीकृष्ण के विरह में व्यथित हैं। वे श्रीकृंष्ण के मथुरा चले जाने पर भी उन्हें सच्वे मन से प्रेम करती हैं। इस प्रेमावेग में उन्हें ऊधौ द्वारा दिया गया योग-साधना व निर्गुण ईश्वर की भक्ति का सदेश जरा भी पसंद नहीं है। गोपियाँ अपने अनन्य प्रेम और योग-साधना के प्रति अपने मन के विचारों को व्यक्त करती हुई ये शब्द कहती हैं।


(ग) गोपियाँ ऊधौ को बताती हैं कि उनकी दृष्टि में निर्गुण उपासना का कोई महत्त्व नहीं है। वे सगुणोपासना को ही महत्त्व देती हैं। इसलिए वे कहती हैं कि कृष्ण तो हमारे लिए हारिल पक्षी की लकड़ी के समान हैं जिसे वह सदैव अपने पंजों में पकड़े रहता है। हमने भी श्रीकृष्ण को अपने जीवन का आधार मानकर उन्हें अपने हृदय में बसा रखा है। हम एक क्षण के लिए भी अपने उस जीवन के आधार श्रीकृष्ण को नहीं भूलती। हमने उसे मन, वचन और कर्म से दृढ़तापूर्वक पकड़ा हुआ है। कहने का भाव है कि गोपियाँ मन, वचन और कर्म से श्रीकृष्ण की उपासिकाएँ हैं । उन्हें हर स्थिति में सोते-जागते या स्वप्न में भी श्रीकृण्ण की ही रट लगी रहती है। उनका मन क्षण भर के लिए भी श्रीकृष्ण से अलग नहीं होता। 


हे भ्रमर! तुम्हारा यह योग का संदेश सुनने में हमारे कानों को कड़वी ककड़ी के समान कड़वा व अरुचिकर लगता है । तुम तो हमारे लिए ऐसी बीमारी ले आए हो, जो हमने पहले न तो कभी देखी. और न सुनी तथा न कभी इसका य्यवहार करके देखा। गोपियाँ ऊधौ को पुनः सम्बोधित करती हुई कहती हैं कि तुम यह योग साधना उन लोगों को दो, जिनके मन में दुविधा हो अर्थात भटकन हों और जिनकी कहीं कोई आस्था न हो। हम पूर्णतः श्रीकृष्ण के प्रति समर्पित हैं तंथा हमारी उनमें पूर्ण आस्था है। इसलिए आपके इस योग-संदेश की हमें आवश्यकता नहीं है।


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(घ) गोपियों ने हरि (श्रीकृष्ण) की तुलना हारिल पक्षी की लकड़ी से की है क्योंकि वह समझता है कि जिस लकड़ी को वह अपने पंजों में सदा पकंड़े रहता है। वही उसके उड़ने का आधार है। इसी प्रकार गोपियाँ भी श्रीकृष्ण को अपने जीवन का आधार समझती हैं और हर समय उसे अपने हृदय में बसाए रखना चाहती हैं।


(ड) गोपियों ने इस पंक्ति के माध्यम से श्रीकृष्ण के प्रति अपने अनन्य प्रेम का वर्णन किया है। वे मन, वचन और कर्म नंद के बेटे श्रीकृष्ण को अपने हृदय में धारण किए हुए हैं।


(च) गोपियाँ सोते-जागते तथा स्वप्न में भी नंद के बेटे श्रीकृष्ण का ही ध्यान करती हैं। वे संच्चे मने से श्रीकृष्ण को प्रेम करती हैं।


(छ) इस पद में कवि ने 'करूई ककरी' ऊधौ द्वारा दिए गए योग के संदेश को कहा है, क्योंकि उसका यह संदेश गोपियों को कड़वी ककड़ी के स्वाद की तरह अरुचिकर लगा था।


(ज) इस पंक्ति का आशय है वे लोग जिनके मन स्थिर नहीं है, जो श्रीकृष्ण के प्रेम को नहीं संमझते हैं। जो किसी के प्रति भी आस्थावान न रहकर व्यर्थ में इधर उधर भटकते फिरते हैं। 


(झ) गोपियाँ योग का संदेश ऐसे व्यक्तियों को देने के लिए कहती हैं जिनका मन चकरी की भाँति चंचल हो। ऐसे व्यक्तियों का मन कई-कई कामों या विचारों में उलझा रहता है। ऐसे व्यक्ति दुविधाग्रस्त भी होते हैं, किंतु वे तो पूर्ण रूप से एकनिष्ठ होकर श्रीकृष्ण की उपासना करती हैं इसलिए उन्हें इस संदेश की आवश्यकता नहीं है।


(ञ) गोपियों ने अपनी तुलना हारिल पक्षी से की है क्योंकि इस हारिल पक्षी सदा अपने पंजों में एक लकडी पकड़े रहता है जिसे वह क्षण भर के लिए भी नहीं छोड़ता। इसी प्रकार गोपियाँ भी श्रीकृष्ण को अपने हृदय में हर क्षण धारण किए रहती हैं। वे एक क्षण के लिए भी अपने प्राणों के आधार श्रीकृष्ण को हृदय से दूर नहीं करतीं।


(ट) प्रस्तुत पद में कवि ने जहाँ गोपियों की मनोदशा का चित्रण किया है, वहीं गोपियों के माध्यम से निर्गुण भक्ति-भावना की अवहेलना और सगुण भक्ति की स्थापना की है। गोपियाँ. श्रीकृष्ण के प्रेम में इतनी लीन हो गई हैं कि उनको श्रीकृष्ण से एक क्षण के लिए दूर रहना कठिन लगता है तथा उसके स्थान पर किसी अन्य देवी-देवता की उपासना नहीं करना चाहतीं। वे साकार श्रीकृष्ण की दीवानी हैं। वे श्रीकृष्ण को अपना मन दे चुकी हैं।


(ठ) ● इस पद में गोपियों के एकनिष्ठ प्रेम का सजीव चित्रण किया गया है तथा निर्गुण ईश्वर की उपासना या योग-साधना को 'व्याधि' कहकर उसकी अवहेलना की गई है।

 ● श्रृंगार रस के वियोग भाव का उल्लेख किया गया है। 

● अनुप्रास, उपमा, पुनरुक्ति प्रकाश आदि अलंकारों का प्रयोग किया गया है।

 ● ब्रजभाषा की कोमलकांत पदावली का विषयानुरूप, प्रयोग देखते ही बनता है।

● भाषा में गेय तत्त्व विद्यमान है।

● माधुर्य गुण विद्यमान है।

● शब्द-योजना अत्यंत सार्थक एवं सटीक है।

● लक्षणा शब्द-शक्ति के प्रयोग से वर्ण्य-विषय गंभीर वन पड़ा है।


(ड) रूपक-हमारैं हरि हारिल की लकरी।

      उपमा-ज्यौं करुई ककरी।


[4] हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।

समुझी बात कहत मधुकर के, समाचार सब पाए।

इक अति चतुर हुते पहिलैं ही, अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए।

बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी, जोग-सँदेस पठाए।

ऊधौ भले लोग आगे के, पर हित डोलत धाए।

अपने मन फेर पाइहैं, चलत जु हुते चुराए।

ते क्यौं अनीति करैं आपुन, जे और अनीति छुड़ाए।

राज धरम तौ यहै 'सूर', जो प्रजा न जाहिं सताए ॥


शब्दार्थ -

हरि = श्रीकृष्ण। पड़ि आए = सीख आए । मधुकर = भ्रमर, भँवरा, यहाँ ऊधौ। हुते = थे । पठाए = भेजे। आगे के = पहले के। पर हित = दूसरों की भलाई । डोलत धाए = दौड़ते फिरते थे। फैर पाइहैं = फिर से पा लेंगी। अनीति = अन्याय। आपुन = स्वयं, अपने आप । जे = जो। जाहिं सताए = सताई जाए।


प्रश्न- (क) कवि तथा कविता का नाम लिखिए।

(ख) इस पद का प्रसंग स्पष्ट कीजिए।

(ग) इस पद की व्याख्या कीजिए।

(य) गोपियों ने ऐसा क्यों समझ लिया कि श्रीकृष्ण ने राजनीति की शिक्षा प्राप्त कर ली थी

(ड) 'बढ़ी बुद्धि जानी जो' के माध्यम से कवि ने क्या स्पष्ट किया है?

(च) पुराने जमाने के लोगों को कहा गया है?

(छ) गोपियाँ क्या प्राप्त करना चाहती थीं ?

(ज) गोपियों ने ऊधौ पर क्या कहकर व्यंग्य किया है ?

(ज) गोपियों योग की शिक्षा लेने में क्या कहकर अपनी असमर्थता व्यक्त करती हैं ?

(স) सच्चा राजधर्म किसे माना गया है?

(ट) इस पद का भाव सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।

(ठ) इस काव्यांश में निहित शिल्प-सौंदर्य पर प्रकाश डालिए।

(ड) इस पद में प्रयुक्त भाषागत विशेषताओं का वर्णन कीजिए।


उत्तर-(क) कवि का नाम- सूरदास।    कविता का नाम- पद।


(ख) प्रस्तुत पद हमारी पाठ्यपुस्तक 'क्षितिज' भाग 2 में संकलित सूरदास के पदों में से लिया गया है । इसमें कवि ने सगुणोपासना का पक्ष लेते हुए निर्गुणोपासना की अवहेलना की है। गोपियाँ ऊधौ द्वारा दिए गए योग-साधना व निर्गुणोपासना के संदेश को सुनकर बहुत दुःखी होती हैं। वे श्रीकृष्ण के इस व्यवहार को कुटिल राजनीति, अन्याय व धोखा कहती हैं।


(ग) गोपियाँ ऊधौ के माध्यम से भेजे गए श्रीकृष्ण के योग-साधना के संदेश को उनके प्रति अन्याय, धोखा और अत्याचार बताती हैं। वे आपस में एक-दूसरी से कहती हैं कि हे सखि! अब श्रीकृष्ण ने राजनीति की शिक्षा ग्रहण कर ली है। वे अब पूर्णरूप से राजनीतिज्ञ हो गए हैं । यह मधुकर (ऊधौ) हमें जो समाचार दे रहा है क्या तुम उसे समझती हो ? एक तो श्रीकृष्ण पहले से ही बहुत चतुर थे तथा अब गुरु ने उन्हें राजनीति के ग्रंथ भी पढ़ा दिए हैं। उनकी बुद्धि कितनी विशाल है, इसका अनुमान तो इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे हमारे लिए योग का सदेश भेज रहे हैं। कहने का भाव है कि उनके इस कार्य से सिद्ध हो गया है कि वे केवल बद्धिमान ही नहीं, अपितु बहुत चालाक व अन्यायी भी हैं क्योंकि यु्वतियों के लिए योग-साधना का सदेश भेजना उचित नहीं है। हे ऊधौ! पुराने समय में सज्जन दूसरों का भला करने के लिए प्रयास करते थे, परंतु आजकल के सज्जन तो दूसरों को दुःख देने के लिए ही यहाँ तक दौड़ते हुए चले आए हैं। 


हे ऊधौ ! हम तो केवल इतना ही चाहती हैं कि हमें हमारा मन मिल जाए श्रीकृष्ण यहाँ से जाते समय अपने साथ चुराकर ले गए थे, किंतु उनसे ऐसे न्यायपूर्ण काम करने की उम्मीद कम ही की जा सकती है। वे दूसरों द्वारा अपनाई जाने वाली रीतियों को ही छुड़ाने का काम करते रहते हैं। कवि के कहने का तात्पर्य है कि गोपियाँ तो प्रेम की रीति का पालन करना चाहती हैं, किंतु श्रीकृष्ण ने योग-साधना का सदेश भेजकर उनकी प्रेम की रीति निभाने की भावना को ठेस पहुँचाई है। वास्तव में यह गोपियों के प्रति अन्याय है । सच्चा राजधर्म तो उसी को माना जाता है जिसमें प्रजा को कोई कष्ट न पहुँचाया जाए अर्थात् उन्हें सताया न जाए । कहने का तात्पर्य है कि श्रीकृष्ण राजा होकर गोपियों के सारे सुख-चैन छीनकर उन्हें और भी दुःखी कर रहे हैं । यह अच्छा राजधर्म नहीं है।


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(घ) श्रीकृष्ण ने राजनीति की शिक्षा प्राप्त कर ली है, गोपियों ने यह इसलिए समझा क्योकि वह राजनीति के क्षेत्र में अपनाई वाली कुटिलता और छलपूर्ण चालें चलने लगे हैं। उन्होंने अपने स्वार्थ के लिए गोपियों का सुख-चैन छीन लिया है और उन्हें दुःख पहुँचाने का प्रयास किया है। ऊधौ को योग का संदेश देकर भेजना भी उनकी ऐसी ही छलपूर्ण नीति थी।


(ड) कवि ने इस पंक्ति के माध्यम से श्रीकृष्ण की कूटनीति पर करारा व्यंग्य किया है। श्रीकृष्ण इस तथ्य को भली-भाँति समझते हैं कि गोपियाँ उनके प्रेम के बिना नहीं रह सकतीं। फिर भी उन्होंने ऊधौ को गोपियों के लिए योग-साधना का संदेश देकर भेज दिया। गोपियों को श्रीकृष्ण के इस व्यवहार में नासमझी ही प्रतीत होती है, क्योंकि वे अपने मित्र ऊधौ के निर्गुण भक्ति के उपासक होने के अहंकार को चूर करना चाहते हैं और इसके लिए उन्होंने बेचारी गोपियों को मोहरा बनाया।


(च) पुराने जमाने के लोग दूसरों के भले के लिए प्रयास किया करते थे इसीलिए उन्हें भले लोग कहा गया है।


(छ) गोपियाँ तो केवल अपने मन को पुनः प्राप्त करना चाहती थीं जिसे श्रीकृष्ण मथुरा जाते समय चुराकर ले गए थे।


(ज) गोपियों ने ऊधौ से कहा कि पहले जमाने के लोग बहुत भले थे, क्योंकि वे परहित के लिए इधर उधर भागते थे अर्थात प्रयास करते थे कितु आजकल के लोग हमारे जैसे लोगों को दुःख पहुँचाने के लिए मथुरा से वृंदावन तक मारे-मारे फिरते हैं।


(झ) गोपियों का कहना है कि हमारा मन तो हमारे पास नहीं है। उसे तो श्रीकृष्ण अपने साथ चुराकर मथुरा ले गए हैं। भला हम योग-साधना कैसे करें। पहले हम अपना मन तो वापिस ले लें, फिर आपके योग-संदेश पर विचार करेंगी।


(ज) सच्चा राजधर्म उसे कहा गया है जिसमें प्रजा को सुख पहुँचाने का प्रयास किया जाता है। राजधर्म प्रजा के हित की चिंता करता है।


(ट) इस पद में गोपियों ने राजनीति की बात कहकर श्रीकृष्ण की अज्ञानता पर करारा व्यग्य किया है। वह अपने-आपको बहुत बड़े बद्धिमान समझते हैं, किंतु योग का संदेश भेजकर भोलीभाली गोपियों पर अन्याय एवं अत्याचार करते हैं। उन्होंने यु्वतियों को योग-साधना की शिक्षा देने को अनीति और शास्त्र-विरुद्ध कहा है। साथ ही सच्चे राजधर्म की विशेषता पर भी प्रकाश डाला गया है। 


(ठ) ● ब्रजभाषा का सुंदर एवं सार्थक प्रयोग किया गया है।

● तद्भव एवं तत्सम शब्दों का भावानुकूल प्रयोग देखते ही बनता है।

● 'राज धरम तौ यहे 'सूर', जो प्रजा न जाहिं सताए' जैसी सुंदर सूक्तियों का प्रयोग किया गया है।

● संपूर्ण पद में वक्रोक्ति अलंकार की छटा है।

● गेय तत्त्व निरंतर बना हुआ है।

● हरि हैं', 'बात कहत', 'गुरु ग्रंथ पढ़ाए' आदि में अनुप्रास अलंकार का सुंदर एवं सहज प्रयोग द्रष्टव्य है।


(ड) इस पद में कवि ने ब्रजभाषा का प्रयोग किया है। तत्सम एवं तद्भव शब्दावली के प्रयोग से भाषा को व्यावहारिक एवं आकर्षक बनाया गया है। व्यंग्यार्थ के प्रयोग से भाषा मूलभाव की अभिव्यज्जना में पूर्णतः सफल हुई है। योग के स्थान पर 'जोग', संदेश के स्थान पर 'सँंदेस', धर्म के स्थान पर 'धरम' जैसे प्रयोग से भाषा में कोमलता का समावेश हआ है।


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  1. Thankyou Sir this was really helpful

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  2. Sir aap bahut hi acche se explain karte ho.. ye mushkil pad easily smjh aa gya..

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    Because most of the student watch this at the time of exam so can you pls just make important 15 question from each chapter

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  14. Hello Sir ... उपमा-गुर चाटी ज्यौं पागी Sir yaha pe Utpreksha Alankar hoga Upma nahi.

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  15. Padh ke maja aa gaya

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