Apna Malwa Khau Ujadu Sabhyata mein Class 12 Important Questions | Class 12 Hindi Apna Malwa ka Ujadu Sabhyata mein Question Answer | अपना मालवा खाऊ उजाड़ू सभ्यता के प्रश्न उत्तर

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Apna Malwa Khau Ujadu Sabhyata mein Class 12 Important Questions |  Class 12 Hindi Apna Malwa ka Ujadu Sabhyata mein Question Answer | अपना मालवा खाऊ उजाड़ू सभ्यता के प्रश्न उत्तर





प्रश्न 1. विकास की औद्यागिक सभ्यता उजाड़ की अपसभ्यता है, खाऊ-उजाडू सभ्यता के संदर्भ में हो रहे पर्यावरण के विनाश पर प्रकाश अपने शब्दों में डालिए।

उत्तर : विकास की औद्योगिक सभ्यता उजाड़ की अपसभ्यता है। खाऊ-उजाडू सभ्यता ने पर्यावरण का विनाश किया है।

‘पर्यावरण’ शब्द ‘परि’ तथा आवरण के योग से बना है।

‘परि’ का अर्थ है-चारों ओर तथा ‘ आवरण’ का अर्थ है-‘ ढकने वाला’ अर्थात् जो चारों ओर फैलकर हमें ढके हुए है। प्रकृति ने हमारे लिए एक स्वस्थ एवं सुखद आवरण का निर्माण किया था, परन्तु मनुष्य ने भौतिक सुखों की होड़ से उसे दूषित कर दिया है। वर्तमान समय में शहरी सभ्यता प्रदूषण की समस्या से घिरी हुई है। जैसे-जैसे वैज्ञानिक उपकरण बढ़ते जा रहे हैं, वैसे-वैसे प्रदूषण का खतरा भी बढ़ता जा रहा है। पर्यावरण के इस प्रदूषण से लोगों का जीवन दूभर होता जा रहा है। सरकार भी इस समस्या के प्रति जागरूक प्रतीत होती है।

प्रदूषण के कारणों की खोज करने पर प्रतीत होता है कि अंध शुंध वृक्षों की कटाई, जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि, उद्योगों का अनियमित फैलाव, चिमनियों से आबादी के मध्य धुआँ उगलना एवं यातायात के साधनों की अभूतपूर्व वृद्धि आदि ही इसके लिए जिम्मेदार हैं। कारखानों का रासायनिक जल नदियों में डाल दिया जाता है। शहरों का गंदा पानी बिना साफ किए नदियों में मिला दिया जाता है। जहाजों द्वारा समुद्रों में तेल गिरा दिया जाता है।

वाहन धुआँ छोड़ते हैं और वायुमण्डल को प्रदूषित करते हैं। इस प्रदूषण से अनेक बीमारियाँ पनपती हैं।

प्रदूषण कई प्रकार का होता है-1. जल-प्रदूषण, 2. वायु-प्रदूषण, 3. भूमि-प्रदूषण, 4. ध्वनि प्रदूषण।


प्रश्न 2. लेखक को क्या लगता है कि ‘हम जिसे विकास की औद्योगिक सभ्यता कहते हैं वह उजाड़ की अपसभ्यता है।’ आप क्या मानते हैं?

उत्तर :लेखक को ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि हम एक गलतफहमी के शिकार हो रहे हैं। जिसे हम विकास की औद्यागिक सभ्यता समझने का भ्रम पाले हुए हैं, वह वास्तव में विकास न होकर उजाड़ की ओर ले जा रही है। यह अपसभ्यता है। पाश्चात्य दृष्टिकोण से अपनाई जा रही सभ्यता हमें कहीं का नहीं छोड़ेगी। यह हमें उजाड़कर रख देगी। यह बर्बाद करने वाली है। यह मानव जाति और प्रकृति दोनों का विनाश करने पर तुली है। इस सभ्यता ने पर्यावरणीय असंतुलन पैदा कर दिया है, मौसम का चक्र बिगाड़ कर रख दिया है। यह खाऊ-उजाडू सभ्यता यूरोप और अमेरिका की देन है जिसके कारण विकास की औद्योगिक सभ्यता उजाड़ की अपसभ्यता बन गई है।

इससे पूरी दुनिया प्रभावित हुई है, पर्यावरण बिगड़ा है। लेखक की पर्यावरण संबंधी चिंता सिर्फ मालवा तक सीमित न होकर सार्वभौमि हो गई है। अमेरिका की खाऊ-उजाडू जीवन पद्धति, संस्कृति, सभ्यता तथा अपनी धरती को उजाड़ने में लगे हुए हैं। इस बहाने लेखक ने खाऊ-उजाडू जीवन पद्धति के द्वारा पर्यावरण विनाश की पूरी तस्वीर खीची है जिससे मालवा भी नहीं बच सका है। आधुनिक औद्योगिक विकास ने हमें अपनी जड़-जमीन से अलग कर दिया है सही मायनों में हम उजड़ रहे हैं। लेखक ने पर्यावरणीलय सरोकारों को आम जनता से जोड़ दिया है तथा पर्यावरण के प्रति लोगों को सचेत किया है।


प्रश्न 3. आज के इंजीनियर ऐसा क्यों समझते हैं कि वे पानी का प्रबंध जानते हैं और पहले जमाने के लोग कुछ नहीं जानते थे ? क्या आप भी ऐसा समझते हैं ?

उत्तर : आज के इंजीनियरों में यह प्रवृत्ति निम्न कारणों से आयी है-

– पश्चिमी शिक्षा के कारण

– अति आत्मविश्वास के कारण

– भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता की उपेक्षा के कारण। आज के इंजीनियर यह समझते हैं कि वे पानी का बेहतर प्रबंध करना जानते हैं, जबकि पहले जमाने के लोग इस बारे में कुछ नहीं जानते थे। पर वे भ्रम के शिकार हैं। वे तो समझते हैं कि ज्ञान तो पश्चिम के रिनेसां के बाद ही आया। उन्हें भारतीय इतिहास की सही जानकारी नहीं है। मालवा में विक्रमादित्य, भोज और मुंज रिनेसां से बहुत पहले हो गए हैं। उन्हें पानी की समस्या का हल करना आता था। ये राजा जानते थे कि इस पठार पर पानी को रोकना होगा। इसके लिए इन सबने तालाब बनवाए, बड़ी-बड़ी बावड़ियाँ बनवाई ताकि बरसात का पानी रुका रहे और धरती के गर्भ के पानी को जीवंत रखा जा सके। हमारे आज के नियोजकों तथा इंजीनियरों ने तालाबों का महत्त्व नहीं समझा और उन्हें गाद से भर जाने दिया और जमीन के पानी को पाताल से भी निकाल लिया। इससे नदी-नाले सूख गए। पग-पग पर नीर वाला मालवा सूख गया। नहीं, हम ऐसा नहीं समझते। पहले लोग भी पानी का प्रबंध करना जानते थे।



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प्रश्न 4. ‘हमारी आज की सभ्यता इन नदियों को अपने गंवे पानी के नाले बना रही है।’ क्यों और कैसे ? अपने विचार लिखिए।

उत्तर : हमारी आज की सभ्यता तेजी से औद्योगिक विकास की ओर अग्रसर है। मालवा की नदियाँ जल से भरी रहती थीं। हाथीपाला नाम इसीलिए पड़ा क्योंकि कभी वहाँ की नदी को पार करने के लिए हाथी पर बैठना पड़ता था। चंद्रभागा पुल के नीचे उतना पानी रहा करता था जितना महाराष्ट्र की चंद्रभागा नदी में। इंदौर के बीच से निकलने वाली नदियाँ कभी इस क्षेत्र को हरा-भरा और गुलजार रखती थीं। आज स्थिति बद से बदतर हो गई है। आज ये नदियाँ सड़े नालों में बदल गई हैं। शिप्रा, चंबल, गंभीर, पार्वती, कालीसिंध, चोरल आदि नदियों के यही हाल हैं। कभी ये नदियाँ सदानीरा कहलाती थीं, पर अब ये मालवा के गालों के आँसू, भी नहीं बहा सकतीं। अब तो ये नदियाँ वर्षा के चौमासे में ही चलती हैं। आज तथाकथित विकास की सभ्यता ने इन नदियों को गंदे पानी के नाले में बदल दिया है। इसके कुछ अन्य कारण निम्नलिखित हैं-

महत्त्वाकांक्षाओं का बढ़ना : मानव की महत्त्वाकांक्षाएँ दिन-प्रतिदिन बढ़ती चली जा रही हैं। वह नित्य नए प्रयोग कर रहा है। उद्योग-धंधों का तेजी से विकास हो रहा है। इनका कूड़ा-कचरा नदियों में गिर रहा है जिससे नदियाँ गंदे नाले में परिवर्तित हो रही हैं। धार्मिक आस्थाएँ : धार्मिक परंपराओं, आस्थाओं और विश्वासों के कारण हम जल को प्रदूषित कर रहे हैं। अंतिम संस्कार करना, राख व अस्थियों को नदी के जल में प्रवाहित किया जाता है। अनेक अवसरों पर मूर्तियाँ भी नदी के जल में विसर्जित की जाती हैं।

बढ़ती जनसंख्या : अंधाधुंध बढ़ती जनसंख्या को अधिक मात्रा में पानी चाहिए। अब ये नदियाँ उसकी पूर्ति में सूखती चली जा रही हैं।


प्रश्न 5. मालवा पहुँचकर लेखक का किस प्रकार के वातावरण से सामना हुआ?

उत्तर : जब लेखक मालवा की धरती पर पहुँचा तब वहाँ के वातावरण को देखकर उसे लगा कि उगते सूरज की निथरी कोमल ध प तो राजस्थान में ही रह गई। मालवा आसमान बादलों से छाया हुआ था। वहाँ काले भूरे बादल थे। थोड़ी देर में लगने लगा कि चौमासा अभी गया नहीं है। जहाँ-जहाँ भी पानी भरा हुआ रह सकता था लबालब भरा हुआ था मटमैला बरसाती पानी। जितने भी छोटे-मोटे नदी-नाले दिख रहे थे, सब बह रहे थे। इससे ज्यादा पानी अब यह धरती सोख के रख नहीं सकती थी। ऊपर से बादल कि कभी भी बरस सकते थे।

उस दिन नवरात्रि की पहली सुबह थी। मालवा में घट स्थापना की तैयारी हो रही थी। गोबर से घर-आँगन लीपने और मानाजी के ओटले की रंगोली से सजाने की सुबह थी। बहू-बेटियों के नहाने-ध ने और सज कर त्योहार मनाने में लगी थी लेकिन आसमान तो घऊँ-घऊँ कर रहा था। रास्ते में छोटे स्टेशनों पर महिलाओं की ही भीड़ थी। लेखक उजली-चटक धूप, लहलहाती ज्वार-बाजरे और सोयाबीन की फसलें, पीले फूलों वाली फैलती बेलों और दमकते घर आँगन देखने आया था लेकिन लग रहा था कि पानी तो गिर के रहेगा। ऐसा नहीं कि नवरात्रि में पानी गिरते न देखा हो। क्वांर मालवा में मानसून के जाने का महीना होता है। कभी थोड़ा पहले भी चला जाता है। इस बार तो जाते हुए भी जमे रहने की धौंस दे रहा है।


प्रश्न 6. लेखक ने ओंकारेश्वर में नर्मदा के आस-पास क्या-क्या बदलाव देखे?

उत्तर : लेखक ने देखा नर्मदा पर ओंकारेश्वर में उस पार सामने सीमेंट-कंक्रीट का विशाल राक्षसी बाँध बनाया जा रहा है। शायद इसीलिए वह चिढ़ती और तिनतिन-फिनफिन करती बह रही थी। मटमैली, कहीं छिछली अपने तल के पत्थर दिखाती, कहीं गहरी अथाह। वे बड़ी-बड़ी नावें वहाँ नहीं थीं। शायद पूर में बहने से बचाकर कहीं रख दी गई थीं। किनारों पर टूटे पत्थर पड़े थे। ज्योतिर्लिग का तीर्थ धाम वह नहीं लग रहा था। निर्माण में लगी बड़ी-बड़ी मशीनें और गुर्राते ट्रक थे। वहीं थोड़ी देर क्वार की चिलचिलाती धूप मिली, लेकिन नर्मदा के बार-बार पूर आने के निशान चारों तरफ थे। बावजूद इतने बाँधों के नर्मदा में अब भी खूब पानी और गति है।


प्रश्न 7. ‘अपना मालवा’ पाठ के आधार पर बताइए कि विक्रमादित्य, भोज और मुंज पानी के रख-रखाव के लिए ऐसा क्या करते थे जो आज के इंजीनियर नहीं करते।

उत्तर : मालवा में विक्रमादित्य, भोज और मुंज आदि राजा पानी का महत्त्व भली प्रकार समझते थे। ये राजा जानते थे कि पठार पर पानी को रोक कर रखना होगा। उन्होंने इसके लिए भरपूर प्रयास किए। उन्होंने तालाब बनवाए और बडी-बड़ी बावड़ियाँ बनवाई ताकि बरसात के पानी को रोककर रखा जा सके और ध रती के पानी को जीवंत रखा जा सके। हमारे आज के इंजीनियरों ने तालाबों को गाद से भर जाने दिया गया और जमीन के पानी को पाताल से भी निकाल दिया। इससे नदी नाले सूख गए। जिस मालवा में पग-पग पर पानी था, वही मालवा सूखा हो गया। आज के इंजीनियर आपने आपको उनसे श्रेष्ठ समझते हैं। वे समझते हैं कि वे ही पानी के रख-रखाव के उपाय कर सकते हैं


प्रश्न 8. ‘अपना मालवा-खाऊ-उजाडू सभ्यता में ‘लेख के आलोक में सदानीरा नदियों के नालों में बदल जाने के कारणों पर प्रकाश डालिए।

उत्तर : अपना मालवा-हमारी आज की सभ्यता इन नदियों को गंदे पानी के नाले बना रही है। इसका कारण है आज का औद्योगिक विकास। उद्योगों का कूड़ा-कचरा इन नदियों में गिर रहा है और नदियों के पानी को गंदला कर रहा है। हम भी अपने शहर की गंदगी को इन नदियों में बहाकर इन्हें गंदे नाले के रूप में परिणत कर रहे हैं। आज की औद्योगिक सभ्यता ने अपसंस्कृति को बढ़ावा दिया है। यह अपसंस्कृति नदियों की पवित्रता पर ध्यान नहीं देती। अब नदियों के प्रति माँ का भाव मिटता चला जा रहा है। अब मालवा में वैसी बरसात नहीं होती, जैसी पहले हुआ करती थी। इसके कारण हैं-

विकास की औद्योगिक सभ्यता ने सब कुछ उजाड़कर रख दिया है। इससे पर्यावरण बिगड़ा है। इस पर्यावरणीय विनाश से मालवा भी नहीं बच पाया है।

वातावरण को गर्म करने वाली कार्बन डाइऑक्साइड


प्रश्न 9. कौन-सी कतरनें किस रहस्य का उद्घाटन करती हैं? वातावरण के इस परिवर्तन के लिए कौन दोषी है और उसका क्या दृष्टिकोण है?

उत्तर : नई दुनिया की ही लाइब्रेरी में कमलेश सेन और अशोक जोशी ने धरती के वातावरण को गर्म करने वाली इस खाऊ-उजाड़ सभ्यता की जो कतरनें निकाल रखी थीं वे बताने को काफी हैं कि मालवा धरती गहन गंभीर क्यों नहीं है और क्यों यहाँ डग-डग रोटी और पग-पग नीर नहीं है। क्यों हमारे समुद्रों का पानी गर्म हो रहा है? क्यों हमारी धरती के ध्रुवों पर जमी बर्फ पिघल रही है? क्यों हमारे मौसमों का चक्र बिगड़ रहा है? क्यों लद्दाख में बर्फ के बजाय पानी गिरा और क्यों बाड़मेर में गाँव डूब गए? क्यों यूरोप और अमेरिका में इतनी गर्मी पड़ रही है? क्योंकि वातावरण को गर्म करने वाली कार्बन डाइऑक्साइड गैसों ने मिलकर धरती के तापमान को तीन डिग्री सेल्सियस बढ़ा दिया है। ये गैसें सबसे ज्यादा अमेरिका और फिर यूरोप के विकसित देशों से निकलती हैं। अमेरिका इन्हें रोकने को तैयार नहीं है। वह नहीं मानता कि धरती के वातावरण के गर्म होने से सब गड़बड़ी हो रही है। अमेरिका की घोषणा है कि वह अपनी खाऊ-उजाड़ जीवन पद्धति पर कोई समझौता नहीं करेगा लेकिन हम अपने मालवा की गहन गंभीर और पग-पग नीर की डग-डग रोटी देने वाली धरती को उजाड़ने में लगे हुए हैं। हम अपनी जीवन पद्धति को क्या समझते हैं।


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प्रश्न 10. लेखक को क्यों लगता है कि ‘जिसे हम विकास की औद्योगिक सभ्यता कहते हैं वह उजाड़ की अपसभ्यता है’? आप क्या मानते हैं?

उत्तर : आज जिसे पश्चिमी प्रभाव में आकर हम विकास की औद्योगिक सभ्यता कह रहे हैं वह वास्तव में उजाड़ की अपसभ्यता है। विकास की इस अंधी दौड़ ने हमारी पूरी जीवन-पद्धति को तहस-नहस करके रख दिया है। इसके बीज यूरोप तथा अमेरिका में हैं। वे खाऊ-उजाडू सभ्यता में विश्वास करते हैं। वहाँ कोई जीवन-मूल्य नहीं है। आधुनिक औद्योगिक विकास ने हमें अपनी जड़-ज़ीन से अलग कर दिया है। सही मायने में हम उजड़ रहे हैं। हमारे नदी-नाले सूख गए हैं, पर्यावरण प्रदूषित हो गया है जिसके कारण विकास की औद्योगिक सभ्यता उजाड़ की अपसभ्यता बनकर रह गई है। इस तथाकथित विकास ने धरती के तापमान को तीन डिग्री सेल्सियस बढ़ा दिया है। वातावरण को गरम करने वाली ये गैसें सबसे ज्यादा यूरोप और अमेरिका से निकली हैं। अमेरिका इन्हें रोकने के लिए तैयार नहीं है। वह अपनी खाऊ-उजाडू जीवन-पद्धति पर कोई समझौता नहीं करेगा।


प्रश्न 11. लेखक इंदौर में गाड़ी से उतरते हुए क्या चाहता था ? फिर उसे क्या प्रतीति हुई और तब उसने क्या देखा?

उत्तर : लेखक इंदौर में गाड़ी से उतरते ही सब नदियों, तालाबों, ताल-तलैयों को देखना चाहता था और पहाड़ों पर चढ़ना चाहता था। फिर उसे प्रतीति हुई कि वह मन से भले ही किशोर हो, पर अब शरीर वैसा फुर्तीला, लचीला नहीं रह गया है कि इन सब जगहों पर जा सके। लेखक ने इस त्रासदायी प्रतीति के बावजूद दो जगहों से नर्मदा देखी। ओंकारेश्वर में उस पार से देखी। सामने सीमेंट-कंक्रीट का विशाल राक्षसी बाँध उस पर बनाया जा रहा था। शायद इसीलिए वह चिढ़ती और तिनतिन-फिनफिन करती बह रही थी। मटमैली, कहीं छिछली अपने तल के पत्थर दिखाती, कहीं गहरी अथाह। वे बड़ी-बड़ी नावें वहाँ नहीं थीं। शायद पूर में बहने से बचा कर कहीं रख दी गई थीं। किनारों पर टूटे पत्थर पड़े थे। ज्योतिर्लिंग का तीर्थ धाम वह नहीं लग रहा था। निर्माण में लगी बड़ी-बड़ी मशीनें और गुराते ट्रक थे। वहीं थोड़ी देर क्वांर की चिलचिलाती धूप मिली, लेकिन नर्मदा के बार-बार पूर आने के निशान चारों तरफ थे। बावजूद इतने बाँधों के नर्मदा में अब भी खूब पानी और गति है।


प्रश्न 12. ‘अपना मालवा खाक उजाड्ूू सभ्यता में’ पाठ का उद्देश्य स्पष्ट कीजिए।

उत्तर : ‘अपना मालवा खाऊ उजाडू सभ्यता में’ पाठ प्रभाष जोशी द्वारा लिखित है। इस पाठ में लेखक ने मालवा और उसके आसपास की सभ्यता और संस्कृति का हददयस्पर्शी चित्रण किया है। किसी समय मालवा धन-धान्य से पूर्ण हुआ करता था। वहाँ चहुँ ओर लहराती फसलें, जल से भरे ताल-तलैया, नदी-नाले इसकी समृद्धि की कहानी कहते प्रतीत होते थे, परंतु बढ़ते शहरीकरण और औद्योगीकरण के कुप्रभाव से मालवा में अब वर्षा कम होने लगी है। सदानीरा और कलकल बहती नदियाँ अब औद्योगिक अपशिष्ट और गंदा पानी होने का साधन मात्र रह गई हैं। यहाँ का पर्यावरण अब प्रदूषण का शिकार हो रहा है। वातावरण में विषाक्त गैसें बढ़ रही हैं, जो जीवन के लिए खतरा बनने लगी हैं। यह सभ्यता, अपसभ्यता में बदल चुकी है। इस प्रकार इस पाठ का उद्देश्य मालवा प्रदेश की प्राचीन संस्कृति और सभ्यता के साथ नदियों और पर्यावरण में बढ़ते प्रदूषण के प्रति जन जागरूकता फैलाना है, जिससे पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाया जा सके।


प्रश्न 13. औद्योगिक विकास से कौन-कौन सी समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं ?

उत्तर : मौसम में बदलाव : औद्योगिक विकास के परिणामस्वरूप मौसम अनिश्चित होता चला जा रहा है। ग्लोबल वार्मिग इसी का दुष्परिणाम है। कारखानों से निकलने वाली गैसों से वातावरण गरम हो रहा है। इससे तापमान में काफी बढ़ोत्तरी हुई है। ध्रुवीय प्रदेशों में भी तापमान बढ़ा है। समुद्रों का पानी भी गरम हो रहा है। इस प्रकार मौसम का चक्र गड़बड़ा रहा है। इस कारण आसानी से जीवन व्यतीत करना कठिन होता जा रहा है।

दूषित जल : औद्योगिक विकास ने हमारे प्राकृतिक जल स्रोतों को दूषित कर दिया है। नदियों में कारखानों की गंदगी बहा दी जाती है। अब तो गंगा नदी भी अपनी पवित्रता खो बैठी है। अब नदियाँ गंदे नालों में परिवर्तित हो गई हैं। पीने के पानी का अकाल पड़ता जा रहा है।

पेड़ों का कटान : उद्योगों के लिए भूमि चाहिए। इसके लिए पेड़ों को काटा जा रहा है। इससे वायु प्रदूषण तो बढ़ा ही है साथ ही भूमि का कटाव भी बढ़ा है। इससे मृदा अपरदन की समस्या उत्पन्न हो गई है।


प्रश्न 14. ‘अपना मालवा-खाऊ-उजाड़ सभ्यता में’ पाठ के आधार पर विकास के नाम पर हो रहे पर्यावरण के विनाश पर प्रकाश डालिए।

उत्तर : विकास की औद्योगिक सभ्यता उजाड़ की अपसभ्यता है। खाऊ-उजाडू सभ्यता ने पर्यावरण का विनाश किया है। ‘पर्यावरण’ शब्द ‘परि’ तथा आवरण के योग से बना है। ‘परि’ का अर्थ है-चारों ओर तथा ‘आवरण’ का अर्थ है-‘ ढकने वाला’ अर्थात् जो चारों ओर फैलकर हमें ढके हुए हैं। प्रकृति ने हमारे लिए एक स्वस्थ एवं सुखद आवरण का निर्माण किया था, परंतु मनुष्य ने भौतिक सुखों की होड़ में उसे दूषित कर दिया है। वर्तमान समय में शहरी सभ्यता प्रदूषण की समस्या से घिरी हुई है। जैसे-जैसे वैज्ञानिक उपकरण बढ़ते जा रहे हैं, वैसे-वैसे प्रदूषण का खतरा भी बढ़ता जा रहा है। पर्यावरण के इस प्रदूषण से लोगों का जीवन दूभर होता जा रहा है। सरकार भी अब इस समस्या के प्रति जागरूक प्रतीत होती है।

प्रदूषण के कारणों की खोज करने पर प्रतीत होता है कि अंधाधुंध वृक्षों की कटाई, जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि, उद्योगों का अनियमित फैलाव, चिमनियों से आबादी के मध्य धुआँ उगलना एवं सहायता के साधनों की अभूतपूर्व वृद्धि आदि ही इसके लिए जिम्मेदार हैं। कारखानों का रासायनिक जल नदियों में डाल दिया जाता है। शहरों का गंदा पानी बिना साफ किए नदियों में मिला दिया जाता है। जहाजों द्वारा समुद्रों में तेल गिरा दिया जाता है। वाहन धुआँ छोड़ते हैं और वायुमंडल को प्रदूषित करते हैं। इस प्रदूषण से अनेक बीमारियाँ पनपती हैं।

जल मनुष्य की बुनियादी आवश्यकता है। स्वच्छ एवं निरापद पीने का पानी न मिलने के कारण अधिकांश लोग गंभीर रोगों का शिकार हो रहे हैं। जल प्रदूषण के लिए अधिकतर कारखाने जिम्मेदार हैं। जल में अनेक विषाक्त तत्त्व मिलकर उसे अनुपयोगी बनाते हैं। शहरों के गंदे नाले भी नदियों में जाकर गिरते हैं। इससे उनका जल दूषित होता है। जल प्रदूषण के कारण पेट के रोग बढ़ रहे हैं। वायु में भी प्रदूषण फैल रहा है। वाहनों द्वारा छोड़ा गया धुआँ तथा कारखानों की चिमनियों से निकला धुआँ वातावरण को दूषित करता है। वातावरण में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ाने के लिए वृक्षारोपण को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।ध्वनि प्रवूषण भी शहरों में बढ़ता जा रहा है। बसों के हॉर्न तथा मशीनों के चलने से उठने वाली भारी कर्कश आवाज से यह प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। इससे बहरेपन का खतरा बढ़ रहा है।


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प्रश्न 15. ‘हमारी वर्तमान सभ्यता नदियों को गंदे पानी के नाले बना रही है’-क्यों और कैसे? इस दिशा में क्या किया जा सकता है? स्पष्ट कीजिए।

उत्तर : हमारी आज की सभ्यता तेजी से औद्योगिक विकास की ओर अग्रसर है। मालवा की नदियाँ जल से भरी रहती थीं। हाथीपाला नाम इसीलिए पड़ा क्योंकि कभी वहाँ की नदी को पार करने के लिए हाथी पर बैठना पड़ता था। चंद्रभागा पुल के नीचे उतना पानी रहा करता था जितना महाराष्ट्र की चंद्रभागा नदी में। इंदौर के बीच से निकलने वाली नदियाँ कभी इस क्षेत्र को हरा-भरा और गुलजार रखती थीं। आज स्थिति बद से बदतर हो गई है। आज ये नदियाँ सड़े नालों में बदल गई हैं। शिप्रा, चंबल, गंभीर, पार्वती, कालीसिंध, चोरल आदि नदियों के यही हाल हैं। कभी ये नदियाँ सदानीरा कहलाती थीं, पर अब ये मालवा के गालों के आँसू, भी नहीं बहा सकतीं। अब तो ये नदियाँ वर्षा के चौमासे में ही चलती हैं। आज तथाकथित विकास की सभ्यता ने इन नदियों को गंदे पानी के नाले में बदल दिया है।

इसके कुछ अन्य कारण निम्नलिखित हैं :

महत्त्वाकांक्षाओं का बढ़ना : मानव की महत्त्वाकांक्षाएँ दिन-प्रतिदिन बढ़ती चली जा रही हैं। वह नित्य नए प्रयोग कर रहा है। उद्योग-धंधों का तेजी से विकास हो रहा है। इनका कूड़ा-कचरा नदियों में गिर रहा है जिससे नदियाँ गंदे नालों में परिवर्तित हो रही हैं।

धार्मिक आस्थाएँ : धार्मिक परंपराओं, आस्थाओं और विश्वासों के कारण हम जल को प्रदूषित कर रहे हैं। अंतिम संस्कार करना, राख व अस्थियों को नदी के जल में प्रवाहित किया जाता है। अनेक अवसरों पर मूर्तियाँ भी नदी के जल में विसर्जित की जाती हैं।

बढ़ती जनसंख्या : अंधाधुंध बढ़ती जनसंख्या को अधिक मात्रा में पानी चाहिए। अब ये नदियाँ उसकी पूर्ति में सूखती चली जा रही हैं।

क्या किया जा सकता है?

नदियों को गंदे पानी के नाले बनने से रोकने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं –

1. नदियों में उद्योगों के मलबे और गंदे पानी को गिरने से रोकना होगा। इसके लिए उद्योगों तथा नगर निकायों को जलशोधन इकाइयाँ लगानी होंगी।

2. नदियों के जल को प्रदूषित करने वालों पर भारी आर्थिक दंड लगाया जाना चाहिए तथा इसके लिए जिम्मेदार व्यक्ति को जेल भेजा जाए।

3. सामान्य जनता भी नदियों के जल को गंदा करने में पीछे नहीं है। लोग नदियों में कूड़ा-कचरा फेंकते हैं, फूल और मूर्तियाँ विसर्जित करते हैं, शवों को बहाते हैं, अस्थियाँ प्रवाहित करते हैं, गंदे कपड़े धोते हैं। इन सभी कामों पर कानूनी प्रतिबंध लगाना आवश्यक है।

सरकार ने गंगा नदी को प्रदूषण मुक्त बनाने के प्रति नये सिरे से प्रतिबद्धता दिखाई है। गंगा व अन्य नदियों को प्रदूषण से बचाने के वायदे पर वह खरी उतरे, इसके लिए नागरिकों को दबाव बनाना चाहिए।


प्रश्न 16. ‘अपना मालवा-खाऊ-उजाडू सभ्यता में’ लेख के आलोक में सदानीरा नदियों के नालों में बदल जाने के कारणों पर प्रकाश डालिए।

उत्तर : अपना मालवा-हमारी आज की सभ्यता इन नदियों को गंदे पानी के नाले बना रही है। इसका कारण है आज का औद्योगिक विकास। उद्योगों का कूड़ा-कचरा इन नदियों में गिर रहा है और नदियों के पानी को गंदला कर रहा है। हम भी अपने शहर की गंदगी को इन नदियों में बहाकर इन्हें गंदे नाले के रूप में परिणत कर रहे हैं। आज की औद्योगिक सभ्यता ने अपसंस्कृति को बढ़ावा दिया है। यह अपसंस्कृति नदियों की पवित्रता पर ध्यान नहीं देती। अब नदियों के प्रति माँ का भाव मिटता चला जा रहा है।

अब मालवा में वैसी बरसात नहीं होती, जैसी पहले हुआ करती थी। इसके कारण हैं-

विकास की औद्योगिक सभ्यता ने सब कुछ उजाड़कर रख दिया है। इससे पर्यावरण बिगड़ा है। इस पर्यावरणीय विनाश से मालवा भी नहीं बच पाया है।

वातावरण को गर्म करने वाली कार्बन डाइऑक्साइड गैसों ने मिलकर धरती के तापमान को तीन डिग्री सेल्सियस बढ़ा दिया है। वातावरण के गर्म होने से यह सब गड़बड़ी हो रही है।

अब मालवा के लोग ही मालवा की धरती को उजाड़ने में लगे हैं।


प्रश्न 17. ‘पग-पग पर नीर’ वाला मालवा नीर विहीन कैसे हो गया? पर्यावरण और मनुष्य के संबंधों पर प्रकाश डालिए।

उत्तर : मालवा में पहले पग-पग पर नीर (पानी) मिलता था। वहाँ पानी की भरमार थी। आज वही मालवा नीर विहीन हो गया है। अब मालवा में पहले जैसी बरसात नहीं होती। इसके दो प्रमुख कारण हैं-

1. विकास की औद्योगिक सभ्यता ने सब कुछ उजाड़कर रख दिया। इससे हुए पर्यावरणीय विनाश से मालवा भी नहीं बचा।

2. वातावरण को गर्म करने वाली कार्बन डाइऑक्साइड जैसी गैसों ने मिलकर धरती के तापमान को तीन डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा दिया। वातावरण की गर्मी ने पानी का अभाव पैदा कर दिया। इससे पर्यावरण और मनुष्य के संबंध भी गड़बड़ा गए। पर्यावरण को अशुद्ध बनाने में औद्योगिक सभ्यता का बड़ा हाथ है। इसने अपसंस्कृति को बढ़ावा दिया है।


प्रश्न 18. ‘अपने नदी, नाले, तालाब सँभाल के रखो तो दुष्काल का साल मज़े में निकल जाता है। लेकिन जिसे हम विकास की औद्योगिक सभ्यता कहते हैं, वह उजाड़ की अपसभ्यता है।’

नदी-नाले-तालाब को सँभाल के रखने से लेखक का क्या आशय है ? यह काम पर्यावरण रक्षण से कैसे जोड़ता है ? विकास की औद्योगिक सभ्यता को उजाड़ की अपसभ्यता क्यों कहा गया है ?

उत्तर : नदी-नाले-तालाब को सँभाल कर रखने से लेखक का आशय यह है कि हमें अपनी नदियों-नालों तथा तालाबों को ठीक हालत में बनाकर रखना चाहिए। इनमें पर्याप्त मात्रा में जल बना रहना चाहिए तथा इस जल का स्वच्छ रहना भी आवश्यक है। हमें नदी-तालाबों में कचरा नहीं बहाना चाहिए। नदी-नालों को सँभालकर रखने के काम को पर्यावरण रक्षण से इस प्रकार जोड़कर रखना है कि जल भी पर्यावरण का ही एक अंग है। जल-प्रदूषण नहीं होना चाहिए। नदी-तालाबों तथा नालों के जल की उचित देखभाल की जानी चाहिए। आज हम पश्चिमी प्रभाव में आकर जिसे विकास की औद्योगिक सभ्यता कह रहे हैं, वह वास्तव में उजाड़ करने वाली अपसभ्यता है। तथाकथित विकास की इस अँधी दौड़ ने हमारी पूरी जीवन-पद्धति को तहस-नहस करके रख दिया है। इसके बीज यूरोप तथा अमेरिका में हैं।

वहाँ के लोग तो खाऊ-उजाडू सभ्यता में विश्वास करते हैं। वहाँ के जीवन में कोई नैतिक जीवन-मूल्य नहीं है। इस आधुनिक औद्योगिक सभ्यता ने हमें अपनी जड़-जमीन से काटकर रख दिया है। यदि ध्यानपूर्वक देखा जाए तो सही मायने में हम उजड़ रहे हैं। हमारे नदी-नाले सूख रहे हैं, पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। इन्हीं के कारण विकास की औद्योगिक सभ्यता उजाड़ की अपसभ्यता बनकर रह गई है। इस तथाकथित सभ्यता ने धरती के तापमान को भी तीन डिग्री सेल्सियस बढ़ा दिया है। वातावरण को गरम करने वाली गैसें सबसे ज्यादा यूरोप और अमेरिका से निकलती हैं। पर ये देश अपनी खाऊ-उजाडू सभ्यता पर कोई समझौता करने को तैयार नहीं हैं।


प्रश्न 19. ‘अपना मालवा-खाऊ उजाडू सभ्यता में’ पाठ में लेखक ने किस ओर ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया है ?

उत्तर : इस पाठ में लेखक ने मालवा प्रदेश की मिट्टी, वर्षा, नदियों की स्थिति, उद्गम एवं विस्तार तथा वहाँ के जन-जीवन एवं संस्कृति को चित्रित किया है। लेखक ने मालवा में हो रहे परिवर्तनों की ओर ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया है। पहले मालवा की धरती पर पग-पग पर नीर हुआ करता था और अब नदी-नाले सूख गए हैं, पग-पग पर नीर वाला मालवा सूखा हो गया है। पहले यही मालवा अपनी सुख-समृद्धि एवं सम्पन्नता के लिए विख्यात था, अब वहीं मालवा खाऊ-उजाडू सभ्यता में फँसकर उलझ गया है। यह खाऊ-उजाडू सभ्यता यूरोप और अमेरिका की देन है। इसके कारण तथाकधित विकास की सभ्यता उजाड़ की अपसभ्यता बनकर रह गई है। इससे पूरी दुनिया पर्यावरण बिगड़ा है। लेखक की पर्यावरणीय चिंता केवल मालवा तक सीमित नहीं है, वरन् सार्वभौमिक है। अमेरिका की खाऊ-उजाडू सभ्यता ने दुनिया को इतना प्रभावित किया है कि हम भी अपनी जीवन-पद्धति, सभ्यता तथा धरती को उजाड़ने में लगे हैं। इसी खाऊ-उजाडू जीवन-पद्धति द्वारा पर्यावरणीय विनाश की पूरी तसवीर की ओर हमारा ध्यान खींचा है। उसने बताया है कि सही मायने में हम उजड़ रहे हैं। लेखक ने इस विषम स्थिति की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया है।


प्रश्न 20. चंबल को लेखक ने कहाँ देखा और क्या देखा ?

उत्तर : चंबल को लेखक ने छाटा-बिलोप में देखा। वहाँ काफी पानी था। वह खूब बह रही थी। उसमें लड़के नहा रहे थे। इन्हें इस बात पर गर्व था कि भले ही यह यहाँ छोटी दिखाई देती है तो क्या हमारी चंबल से बस गंगा ही बड़ी है। आगे बहुत बड़ा बाँध है। वहाँ खूब पानी है। इस बार तो गाँधी सागर के सब फाटक खोलने पड़े। इतना अधिक पानी भर गया था। हालोद के आगे यशवंत सागर को इस बार फिर उसने इतना भर दिया कि पच्चीसों साइफन चलाने पड़े। 67 साल में तीसरी बार ऐसा हुआ।

पार्वती और कालीसिंध ने फिर रास्ता रोक दिया। दो दिन तक पुल पर से पानी बहता रहा। इस बार मालवा के पठार की सब नदियाँ भर गई। उसके पास बहने वाली नर्मदा में भी खूब पानी आया। बरसों बाद हजारों साल की कहावत सच हुई-” मालवा की धरती गहन गंभीर, डग-डग रोटी, पग-पग नीर।” दक्षिण से उत्तर की ओर बलान वाले इस पठार की सभी नदियों के दर्शन हुए। खूब पानी, खूब बहाव और खूब कृपा। नदी का सदा नीर रहना ही जीवन के स्रोत का जीवित रहना है।

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