बालगोबिन भगत (पठित गद्यांश)

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बालगोबिन भगत (पठित गद्यांश)






गद्यांश पर आधारित प्रश्न

प्रश्न 1. निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए-

बालगोबिन भगत की मौत उन्हीं के अनुरूप हुई। वह हर वर्ष गंगा-स्नान करने जाते। स्नान पर उतनी आस्था नहीं रखते, जितना संत-समागम और लोकदर्शन पर। पैदल ही जाते। करीब तीस कोस पर गंगा थी। साधु को संबल लेने का क्या हक? और गृहस्थ किसी से भिक्षा क्यों माँगे? अतः घर से खाकर चलते, तो फिर घर पर ही लौट कर खाते। रास्ते भर खंजड़ी बजाते, गाते, जहाँ प्यास लगती, पानी पी लेते। चार-पाँच दिन आने-जाने में लगते; किन्तु इस लंबे उपवास में भी वही मस्ती! अब बुढ़ापा आ गया था, किंतु टेक वही जवानी वाली।

(क) “बालगोबिन भगत की मौत उन्हीं के अनुरूप हुई'- कथन का आशय समझाइए।
(ख) “संबल' शब्द का अर्थ स्पष्ट कीजिए और बताइए कि भगत को संबल लेने का हक क्यों नहीं था?
(ग) आशय स्पष्ट कीजिए- ‘बुढ़ापा आ गया था किंतु टेक वही जवानी वाली' ।

उत्तर:
(क) 'बालगोबिन भगत की मौत उन्हीं के अनुरूप हुई' - पंक्ति का आशय यह है कि बालगोबिन भगत मौत को दुःख का कारण नहीं, उत्सव का दिन मानते थे। मौत उनके लिए आत्मा का परमात्मा से मिलन की अवस्था है उनके मन में मृत्यु के प्रति भय नहीं था और न ही अपने बुढ़ापे को लेकर ही वे चिंतित थे। बुढ़ापे में भी वे अपना नित-नियम स्नान-संध्या सब पूर्ववत करते रहे। ईश्वर भक्ति में लीन मस्त होकर कबीर के पद गाते रहे। अंतिम दिन भी सांय को पद गाए और प्रातः होने पर शरीर छोड़कर चले गए। मृत्यु ने उन्हें कभी भी विचलित नहीं किया। उनकी मृत्यु उनके अनुरूप ही हुई।

ख)  ‘संबल' का अर्थ है- आश्रय, सहारा। भगत जी को संबल लेने का कोई हक नहीं था इसका कारण यह था कि वह यह मानते थे कि साधु को संबल लेने का कोई हक नहीं है। वे स्वाभिमान और विनम्रता को साधुता का प्रमुख गुण मानते थे। किसी से कुछ माँगना अथवा हाथ फैलाना उन्हें गवारा नहीं था। वे गंगा-स्नान के लिए पैदल जाते थे। बीच में माँगकर खाना उनकी प्रवृत्ति के विरुद्ध था। वे घर से भोजन करके जाते थे और घर आकर ही भोजन करते थे। यह उनका स्वाभिमान था। न जवानी में उन्होंने किसी से सहायता ली और न बुढ़ापे में उन्होंने किसी का आश्रय लिया। यही उनके व्यक्तित्व की विशिष्टता थी।

(ग) 'बुढ़ापा आ गया था किंतु टेक वही जवानी वाली पंक्ति के द्वारा बालगोबिन भगत के व्यक्तित्व को स्पष्ट किया गया है। बालगोबिन वृद्ध हो गए थे, परंतु उनके नित-नियम में किसी भी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं आया था। वे हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी (जीवन के अंतिम क्षणों में) गंगा स्नान करने गए थे। संत-समागम इस स्नान का मुख्य उद्देश्य था। वृद्धावस्था में पहुँचकर भी उन्हें किसी का आश्रय लेना मंजूर नहीं था। रास्ते भर खंजड़ी बजाना, भजन गाना उनका ध्येय था। गंगा तक पहुँचने के लिए चार-पाँच दिन का लंबा रास्ता था। इस बीच वे उपवास रखते थे। किसी से कोई सहायता नहीं लेते थे। जवानी से लेकर जीवन के अंतिम क्षण तक यह क्रम चलता रहा। यही आदर्श व्यक्तित्व उनका जीवन भर रहा।

प्रश्न 2. निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए-

किंतु, बालगोबिन भगत गाए जा रहे हैं! हाँ, गाते-गाते कभी-कभी पतोहू के नज़दीक भी जाते और उसे रोने के बदले उत्सव मनाने को कहते। आत्मा परमात्मा के पास चली गई, विरहिनी अपने प्रेमी से जा मिली, भला इससे बढ़कर आनंद की कौन बात? मैं कभी-कभी सोचता, यह पागल तो नहीं हो गए। किंतु नहीं, वह जो कुछ कह रहे थे, उसमें उनका विश्वास बोल रहा था- वह चरम विश्वास जो हमेशा ही मृत्यु पर विजयी होता आया है।


(क) पत्र के शव के निकट बैठकर बालगोबिन भगत लगातार क्यों गाए जा रहे थे और रोती हुई पतोहू को उत्सव मनाने के लिए क्यों कह रहे थे? 
(ख) पुत्र की मृत्यु भी भगत के विचार से आनन्द की बात क्यों थी?
(ग) उनका कौन-सा विश्वास सांसारिक प्राणी को मृत्यु के प्रति निडर होने की प्रेरणा देता है?

उत्तर:
(क) पुत्र के शव के निकट बैठकर बालगोबिन भगत इसलिए गाए जा रहे थे क्योंकि वह आत्मा-परमात्मा का बहुत घनिष्ठ संबंध मानते थे। आत्मा परमात्मा का ही एक अंश है जो अपने परम पिता से मिलने के लिए सदैव व्याकुल रहती है। ‘मृत्यु रुदन का नहीं अपितु 'उत्सव' मनाने का समय है। क्योंकि परमात्मा से बिछड़ा अंश अपने उद्गम स्रोत में समा जाता है इसलिए बालगोबिन भगत अपनी पतोहू को भी उत्सव मनाने के लिए कह रहे थे।

(ख) पुत्र की मृत्यु भी भगत के विचार से आनंद की बात थी क्योंकि विरहणी आत्मा का परमात्मा से मिलन हो गया था। विरहणी अपने प्रियतम से मिल गई थी। जीव व ईश्वर का मिलन आनंद प्रदान करने वाला अवसर है, शोक मनाने का नहीं।

(ग) मृत्यु का दिन एक ऐसा पावन अवसर है जब आत्मा सारे सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर परमात्मा में समा जाती है और सारे विषादों से मुक्त हो जाती है। लेखक का यह विश्वास सांसारिक प्राणी को मृत्यु के प्रति निडर होने की प्रेरणा देता है।

प्रश्न 3.
अधोलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए-

बेटे के क्रिया-कर्म में तूल नहीं किया; पतोहू से ही आग दिलाई उसकी। किंतु ज्योंही श्राद्ध की अवधि पूरी हो गई, पतोहू के भाई को बुलाकर उसके साथ कर दिया, यह आदेश देते हुए कि इसकी दूसरी शादी कर देना। इधर पतोह रो-रोकर कहती- में चली जाऊँगी तो बुढ़ापे में कौन आपके लिए भोजन बनाएगा? बीमार पड़े, तो कौन एक चुल्लू पानी भी देगा? मैं पैर पड़ती हूँ, मुझे चरणों से अलग नहीं कीजिए।

(क) भगत ने बेटे के क्रिया-कर्म में तूल क्यों नहीं किया?
(ख) भगत पतोहू की दूसरी शादी क्यों कराना चाहते थे?
(ग) पतोहू भगत के चरणों में ही क्यों रहना चाहती थी?

उत्तर:
(क) भगत ने बेटे के क्रिया-कर्म में तूल नहीं किया क्योंकि वह प्रचलित मान्यताओं को उचित नहीं मानते थे। स्त्रियों को श्मशान में नहीं जाने दिया जाता था। उन्होंने इस सामाजिक परंपरा का बहिष्कार किया व अपनी पतोहू से अपने मृतक पुत्र की चिता को अग्नि दिलवाई।

(ख) लोगों का यह विचार था कि विधवा का पुनः विवाह धर्म के विरुद्ध है। भगत जी विधवा-विवाह के समर्थक थे। आजीवन एक स्त्री अपनी इच्छाओं का गला घोंट कर जिए, यह उन्हें स्वीकार नहीं था। इसलिए उन्होंने पतोहू को दूसरी शादी का निर्णय लिया।

(ग) भगत जी वृद्ध थे। पतोहू के सिवा उनके परिवार में उनकी देखभाल के लिए कोई और नहीं था। पतोहू भगत जी की सेवा व उनकी देखभाल करना चाहती थी। वह पुत्र की विधवा के रूप में घर में रहकर भगत जी का सहारा बनना चाहती थी।

प्रश्न 4.
अधोलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए-

खेतीबारी करते, परिवार रखते भी, बालगोबिन भगत साधु थे- साधु की सब परिभाषाओं में खरे उतरने वाले। कबीर को ‘साहब' मानते थे, उन्हीं के गीतों को गाते, उन्हीं के आदेशों पर चलते। कभी झूठ नहीं बोलते, खरा व्यवहार रखते। किसी से भी दो टूक बात करने में संकोच नहीं करते, न किसी से खामखाह झगड़ा मोल लेते। किसी की चीज़ नहीं छूते, न बिना पूछे व्यवहार में लाते।

(क) गृहस्थधर्मी होते हुए भी बालगोबिन भगत खरे साधु कैसे थे?
(ख) कबीर कौन थे? भगत कबीर को ‘साहब' क्यों मानते थे?
(ग) गद्यांश के आधार पर भगत के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालिए।

उत्तर:
(क) गृहस्थधर्मी होते हुए भी बालगोबिन भगत साधु थे क्योंकि उन्होंने जीवन में सत्य को अपनाया। उनके मन में स्वार्थ नहीं, अपितु त्याग की भावना थी। उनका कभी किसी से विवाद नहीं हुआ। लोभ की भावना तनिक भी नहीं थी। वह 'कबीर' को अपने जीवन का आदर्श मानते थे तथा आडंबर व पुरानी मान्यताओं में परिवर्तन चाहते थे।

(ख) बालगोबिन भगत कबीर को ‘साहब' इसलिए मानते थे क्योंकि कबीर ने सामाजिक व धर्म के नाम पर होने वाले पाखंडों का विरोध किया था। 'कबीर' की उच्च मानसिकता, उनके आदर्शों ने भगत के मन को झकझोर दिया था। कबीर की तरह सादा जीवन व उच्च विचारों को आत्मसात् करने वाले भगत जी के लिए कबीर उनके 'साहब' थे। इस शब्द के द्वारा भगत जी ने 'कबीर' को सम्मान दिया है।

(ग) भगत जी ने सदैव सत्य के मार्ग का अनुसरण किया। भोग की अपेक्षा उन्होंने त्याग वृत्ति अपनाई। अपने विचारों को निःसंकोच प्रकट किया। विवाद की स्थिति कभी पैदा नहीं होने दी। उन्होंने धन व वस्तुओं के प्रति मोह नहीं रखा। सामाजिक रूढ़ियों का सदैव विरोध किया। 'कबीर' के आदर्शों को आत्मसात् किया।


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