शिरीष के फूल (पठित गद्यांश)
निम्नलिखित गद्यांशों को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए -
प्रश्न 1:
जहाँ बैठ के यह लेख लिख रहा हूँ उसके आगे-पीछे, दायें-बायें, शिरीष के अनेक पेड़ हैं। जेठ की जलती धूप में, जबकि धरित्री निर्धुम अग्निकुंड बनी हुई थी, शिरीष नीचे से ऊपर तक फूलों से लद गया था। कम फूल इस प्रकार की गरमी में फुल सकने की हिम्मत करते हैं। कर्णिकार और आरग्वध (अमलतास) की बात मैं भूल नहीं रहा हूँ। वे भी आस-पास बहुत हैं। लेकिन शिरीष के साथ आरग्यध की तुलना नहीं की जा सकती। वह पंद्रह-बीस दिन के लिए फूलता है, वसंत ऋतु के पलाश की भाँति। कबीरदास को इस तरह पंद्रह दिन के लिए लहक उठना पसंद नहीं था। यह भी क्या कि दस दिन फूले और फिर खखंड के खखंड 'दिन दस फूला फूलिक, खखंड भया पलास!' ऐसे दुमदारों से तो लंडूरे भले। फूल है शिरीष। वसंत के आगमन के साथ लहक उठता है, आषाढ़ तक जो निश्चित रूप से मस्त बना रहता है। मन रम गया तो भरे भादों में भी निर्घात फूलता रहता है।
प्रश्न
1, लेखक कहाँ बैठकर लिख रहा है? वहाँ कैसा वातावरण हैं?
2. लेखक शिरीष के फूल की क्या विशेषता बताता हैं?
3. कबीरदास को कौन-से फूल पसंद नहीं थे तथा क्यों?
4, शिरीष किस ऋतु में लहकता है?
उत्तर =
1. लेखक शिरीष के पेड़ों के समूह के बीच में बैठकर लिख रहा है। इस समय जेठ माह की जलाने वाली धूप पड़ रही है तथा सारी धरती अग्निकुंड की भाँति बनी हुई है।
2, शिरीष के फूल की यह विशेषता है कि भयंकर गरमी में जहाँ अधिकतर फूल खिल नहीं पाते, वहाँ शिरीष नीचे से ऊपर तक फूलों से लदा होता है। ये फूल लंबे समय तक रहते हैं।
3, कबीरदास को पलास (ढाक के फूल) पसंद नहीं थे क्योंकि वे पंद्रह-बीस दिन के लिए फूलते हैं तथा फिर खखंड हो जाते हैं। उनमें जीवन-शक्ति कम होती है। कदीरदास को अल्पायु वाले कमजोर फूल पसंद नहीं थे।
4, शिरीष वसंत ऋतु आने पर लहक उठता है तथा आषाढ़ के महीने से इसमें पूर्ण मस्ती होती है। कभी-कभी वह उमस भरे भादों मास तक भी फूलता है।
प्रश्न 2:
मन रम गया तो भरे भादों में भी निर्घात फूलता रहता है। जब उमस से प्राण उबलता रहता है और लू से हृदय सूखता रहता है, एकमात्र शिरीष कालजयी अवधूत की भाँति जीवन की अजेयता का मंत्रप्रचार करता रहता है। यद्यपि कवियों की भाँति हर फूल-पत्ते को देखकर मुग्ध होने लायक हृदय विधाता ने नहीं दिया है, पर नितांत ठूँठ भी नहीं हूँ। शिरीष के पुष्प मेरे मानस में थोड़ा हिलोल जरूर पैदा करते हैं।
प्रश्न:
1, अवधूत किसे कहते हैं? शिरीष को कालजयी अवधूत क्यों कहा गया है?
2. 'नितांत ठूँठ' से यहाँ क्या तात्पर्य है? लेखक स्वयं को नितांत ठूँठ क्यों नहीं मानता ?
३. शिरीष जीवन की अजेयता का मंत्र कैसे प्रचारित करता रहता है?
4. आशय स्पष्ट कीजिए-'मन रम गया तो भरे भादों में भी फूलता रहता है।
उत्तर -
1. 'अवधूत' वह है जो सांसारिक मोहमाया से ऊपर होता है। वह संन्यासी होता है। लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधूत कहा है। क्योंकि वह कठिन परिस्थितियों में भी फलता फूलता रहता है। भयंकर गरमी, लू, उमस आदि में भी शिरीष का पेड़ फूलों से लदा हुआ मिलता है।
2. 'नितांत ठूँठ' का अर्थ है-रसहीन होना। लेखक स्वयं को प्रकृति-प्रेमी व भावुक मानता है। उसका मन भी शिरीष के फूलों को देखकर तरंगित होता है।
3. शिरीष के पेड़ पर फूल भयंकर गरमी में आते हैं तथा लंबे समय तक रहते हैं। उमस में मानव बेचैन हो जाता है तथा लू से शुष्कता आती है। ऐसे समय में भी शिरीष के पेड़ पर फूल रहते हैं। इस प्रकार वह अवधूत की तरह जीवन की अजेयता का मंत्र प्रचारित करता है।
4, इसका अर्थ यह है कि शिरीष के पेड़ वसंत ऋतु में फूलों से लद जाते हैं तथा आषाढ़ तक रहते हैं। आगे मौसम की स्थिति में बड़ा फेरबदल न हो तो भादों की उमस व गरमी में भी ये फूलों से लदे रहते हैं।
प्रश्न 3:
शिरीष के फूल की कोमलता देखकर परवर्ती कवियों ने समझा कि उसका सब-कुछ कोमल है! यह भूल है। इसके फल इतने मजबूत होते हैं कि नए फूलों के निकल आने पर भी स्थान नहीं छोड़ते। जब तक नए फल-पत्ते मिलकर, धकियाकर उन्हें बाहर नहीं कर देते तब तक वे डटे रहते हैं। वसंत के आगमन के समय जब सारी वनस्थली पुष्प-पत्र से मर्मरित होती रहती है, शिरीष के पुराने फल बुरी तरह खड़खड़ाते रहते हैं। मुझे इनको देखकर उन नेताओं की बात याद आती हैं, जो किसी प्रकार जमाने का रुख नहीं पहचानते और जब तक नई पौध के लोग उन्हें धक्का मारकर निकाल नहीं देते तब तक जमे रहते हैं।
प्रश्न
1. शिरीष के नए फल और पत्तों का पुराने फलों के प्रति व्यवहार संसार में किस रूप में देखने को मिलता है?
2. किसे आधार मानकर बाद के कवियों को परवर्ती कहा गया है ? उनकी समझ में क्या भूल थी ?
3. शिरीष के फूलों और फलों के स्वभाव में क्या अंतर हैं?
4. शिरीष के फूलों और आधुनिक नेताओं के स्वभाव में लेखक को क्या समय दिखाई पड़ता है?
उत्तर
1. शिरीष के नए फल व पत्ते नवीनता के परिचायक हैं तथा पुराने फल प्राचीनता के नयी पीढ़ी प्राचीन रूढ़िवादिता को धकेलकर नव-निर्माण करती है। यही संसार का नियम है।
2. कालिदास को आधार मानकर बाद के कवियों को परवर्ती कहा गया है। उन्होंने भी भूल से शिरीष के फूलों को कोमल मान लिया था।
3, शिरीष के फूल बेहद कोमल होते हैं, जबकि फल अत्यधिक मजबूत होते हैं। ये तभी अपना स्थान छोड़ते हैं अब नए फल और पत्ते मिलकर उन्हें धकियाकर बाहर नहीं निकाल देते।
4, लेखक को शिरीष के फलों व आधुनिक नेताओं के स्वभाव में अडिगता तथा कुर्सी के मोह को समानता दिखाई पड़ती है। ये दोनों तभी स्थान छोड़ते हैं जब उन्हें धकियाया जाता है।
प्रश्न 4:
मैं सोचता हूँ कि पुराने की यह अधिकार-लिप्सा क्यों नहीं समय रहते सावधान हो जाती? जरा और मृत्यु, ये दोनों ही जगत के अतिपरिचित और अतिप्रामाणिक सत्य है। तुलसीदास ने अफसोस के साथ इनकी सच्चाई पर मुहर लगाई थी-धरा को प्रमान यही तुलसी, जो फरा सो झरा, जो बरा सो बुताना!' मैं शिरीष के फूलों को देखकर कहता हैं कि क्यों नहीं फलते ही समझ लेते बाबा कि झड़ना निश्चित है। सुनता कौन है? महाकालदेवता सपासप कोड़े चला रहे हैं, जीर्ण और दुर्बल झड़ रहे हैं, जिनमें प्राणकण थोड़ा भी ऊध्वमुखी है, वे टिक जाते हैं। दुरंत प्राणधारा और सर्वव्यापक कालाग्नि का संघर्ष निरंतर चल रहा है। मूर्ख समझते हैं कि जहाँ बने हैं, वहीं देर तक बने रहे तो कालदेवता की। आँख बचा जाऐंगे। भोले हैं वे। हिलते-डुलते रहो, स्थान बदलते रहो, आगे की ओर मुँह किए रहो तो कोड़े की मार से बच भी सकते हो। जमे कि मरे!
प्रश्न:
1. जीवन का सत्य क्या हैं?
2. शिरीष के फूलों को देखकर लेखक क्या कहता हैं?
3, महाकाल के कोई चलाने से क्या अभिप्राय है?
4. मुर्ख व्यक्ति क्या समझते हैं ?
उत्तर -
1. जीवन का सत्य है वृद्धावस्था व मृत्यु। ये दोनों जगत के अतिपरिचित व अतिप्रामाणिक सत्य हैं। इनसे कोई बच नहीं सकता।
2, शिरीष के फूलों को देखकर लेखक कहता है कि इन्हें फूलते ही यह समझ लेना चाहिए कि झड़ना निश्चित है।
3. इसका अर्थ यह है कि यमराज निरंतर कोड़े बरसा रहा है। समय-समय पर मनुष्य को कष्ट मिलते रहते हैं, फिर भी मनुष्य जीना चाहता है।
4, मूर्ख व्यक्ति समझते हैं कि वे जहाँ बने हैं, वहीं देर तक बने रहें तो मृत्यु से बच जाएँगे। वे समय को धोखा देने की कोशिश करते हैं।
प्रश्न 5:
एक-एक बार मुझे मालूम होता है कि यह शिरीष एक अद्भुत अवधूत है। दुख हो या सुख, वह हार नहीं मानता। न ऊधो का लेना, न माधों का देना। जब धरती और आसमान जलते रहते हैं, तब भी यह हजरत न जाने कहाँ से अपना रस खींचते रहते हैं। मौज में आठों याम मस्त रहते हैं। एक वनस्पतिशास्त्री ने मुझे बताया है कि यह इस श्रेणी का पेड़ है जो वायुमंडल से अपना रस लेता है। जरूर खींचता होगा। नहीं तो भयंकर लू के समय इतने कोमल तंतुजाल और ऐसे सुकुमार केसर को कैसे उगा सकता था? अवधूतों के मुँह से ही संसार की सबसे सरस रचनाएँ निकली हैं। कबीर बहुत कुछ इस शिरीष के समान ही थे, मस्त और बेपरवाह, पर सरस और मादक। कालिदास भी अनासक्त योगी रहे होंगे। शिरीष के फूल फक्ड़ाना मस्ती से ही उपज सकते हैं और 'मेघदूत' का काव्य उसी प्रकार के अनासक्त उन्मुक्त हृदय में उमड़ सकता है। जो कवि अनासक्त नहीं रह सका, जो फक्कड़ नहीं बन सका, जो किए-कराए का लेखा-जोखा मिलाने में उलझ गया, वह भी क्या कवि है?
प्रश्न:
1. लेखक ने शिरीष को क्या संज्ञा दी है तथा क्यों ?
2. 'अवधूतों के मुंह से ही संसार की सबसे सरस रचनाएँ निकली हैं?-आशय स्पष्ट कीजिए।
3. कबीरदास पर लेखक ने क्या टिप्पणी की है ?
उत्तर -
1. लेखक ने शिरीष को अवधूत की संज्ञा दी है क्योंकि शिरीष भी कठिन परिस्थितियों में मस्ती से जीता है। उसे संसार में किसी से मोह नहीं है।
2. लेखक कहता है कि अवधूत जटिल परिस्थितियों में रहता है। फक्कड़पन, मस्ती व अनासक्ति के कारण ही वह सरस रचना कर सकता है।
3. कबीरदास शिरीष के समान फक्कड़ व सरस थे। इसी कारण उन्होंने संसार को सरस रचनाएँ दीं।
प्रश्न 6:
कालिदास वजन ठीक रख सकते थे, वे अनासक्त योगी की स्थिर-प्रज्ञता और विदग्ध प्रेमी का हृदय पा चुके थे। कवि होने से क्या होता है? मैं भी छंद बना लेता हूँ तुक जोड़ लेता हूँ और कालिदास भी छंद बना लेते थे-तुक भी जोड़ ही सकते होंगे। इसलिए हम दोनों एक श्रेणी के नहीं हो जाते। पुराने सुहृदय ने किसी ऐसे ही दावेदार को फटकारते हुए कहा था-'वयमपि कवयः कवयः कवयस्ते कालिदासाह्या!' मैं तो मुग्ध और विस्मय-विमूढ़ होकर कालिदास के एक-एक श्लोक को देखकर हैरान हो जाता हैं। अब इस शिरीष के फूल का ही एक उदाहरण लीजिए। शकुंतला बहुत सुंदर थी। सुंदर क्या होने से कोई हो जाता है? देखना चाहिए कि कितने सुंदर हृदय में वह सौंदर्य डुबकी लगाकर निकला हैं। शकुंतला कालिदास के हृदय से निकली थी। विधाता की ओर से कोई कार्पण्य नहीं था, कवि की ओर से भी नहीं। राजा दुष्यंत भी भले प्रेमी थे। उन्होंने शकुंतला का एक चित्र बनाया था, लेकिन रह रहकर उनका मन खीझ उठता था। कहीं-न-कहीं कुछ छूट गया है। बड़ी देर के बाद उन्हें समझ में आया कि शकुंलता के कानों में वे उस शिरीष पुष्य को देना भूल गए हैं, जिसके केसर गंडस्थल तक लटके हुए थे, और रह गया है शरच्चंद्र की किरणों के समान कोमल और शुभ्र मृणाल का हार।
प्रश्न
1. लेखक कालिदास को श्रेष्ठ कवि वयों मानता है?
2. भाम कवि व कालिदास में क्या अंतर हैं?
3. 'शकुंतला कालिदास के हृदय से निकली थी"-आशय स्पष्ट करें।
4. दुष्यंत वे खीझने का क्या कारन था ? अंत में उसे क्या समझ में आया?
उत्तर =
1, लेखक ने कालिदास को श्रेष्ठ कवि माना है कि कालिदास के शब्दों व अर्थों में साथ है। वे अनासक्त योगी की तरह स्थिर प्रज्ञता व विदग्ध प्रेमी का हृदय भी पा चुके थे। श्रेष्ठ कवि के लिए यह गुण आवश्यक है।
2. आम कवि शब्दों की लय, तुक व छेद से संतुष्ट होता है, परंतु विषय की गहराई पर ध्यान नहीं देता है। हालांकि कालिदास कविता के बाहरी तत्र्यों में विशेषज्ञ तो थे ही, वे विषय में डूबकर लिखते थे।
3. लेखक का मानना है कि शकुंतला सुंदर थी, परंतु देखने वाले की दृष्टि में सौंदर्यबोध होना बहुत जरूरी है। कालिदास की सौंदर्य दृष्टि के कारण ही शकुंतला का सौंदर्य निखरकर आया है। यह कवि की कल्पना का चमत्कार है।
4, दुष्यंत ने शकुंतला का चित्र बनाया था, परंतु उन्हें उसमें संपूर्णता नहीं दिखाई दे रही थी। काफी देर बाद उनकी समझ में आया कि शकुंतला के कानों में शिरीष पुष्प नहीं पहनाए धे, गले में मृणाल का हार पहनाना भी शेष था।
प्रश्न 7:
कालिदास सौंदर्य के बाह्य आवरण को भेदकर उसके भीतर तक पहुँच सकते थे, दुख हो कि सुख, वे अपना भाव-रस उस अनासक्त कृषीवल की भाँति खींच लेते थे जो निर्दलित ईक्षुदंड से रस निकाल लेता है। कालिदास महान थे, क्योंकि ये अनासक्त रह सके थे। कुछ इसी श्रेणी की अनासक्ति आधुनिक हिंदी कवि सुमित्रानंदन पंत में है। कविवर रवींद्रनाथ में यह अनासक्ति थी। एक जगह उन्होंने लिखा-'राजोद्यान का सिंहद्वार कितना हीं अभ्रभेदी क्यों न हो, उसकी शिल्पकला कितनी ही सुंदर क्यों न हो, वह यह नहीं कहता कि हममें आकर ही सारा रास्ता समाप्त हो गया। असल गंतव्य स्थान उसे अतिक्रम करने के बाद ही है, यहीं बताना उसका कर्तव्य है। फूल हो या पेड़, वह अपने-आप में समाप्त नहीं है। वह किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुई अँगुली है। वह इशारा है।
प्रश्न:
1. कालिदास की सौंदर्य दूष्टि के बारे में बताइए।
2, कालिदास की समानता आधुनिक काल के किन कवियों से दिखाई गाई ?
3. रवींद्रनाथ ने राजोद्यान के सिंहद्वार के बारे में क्या लिखा हैं?
4. फूलों या पेडों से हमें क्या प्रेरणा मिलती हैं?
उत्तर -
1, कालिदास की सौंदर्य-दृष्टि सूक्ष्म व संपूर्ण थी। वे सौंदर्य के बाहरी आवरण को भेदकर उसके अंदर के सौंदर्य को प्राप्त करते थे। वे दुख या सुख-दोनों स्थितियों से अपना भाव-रस निकाल लेते थे।
2, कालिदास की समानता आधुनिक काल के कवियों सुमित्रानंदन पंत व रवींद्रनाथ टैगोर से दिखाई गई है। तटस्थता के कारण ही ये कविता के साथ न्याय कर पाते हैं।
3, रवींद्रनाथ ने एक जगह लिखा है कि राजोद्यान का सिंहद्वार कितना ही गगनचुंबी वयों न हो, उसकी शिल्पकला कितनी ही सुंदर क्यों न हो, वह यह नहीं कहता कि हममें आकर हीं सारा रास्ता समाप्त हो गया। असल गंतव्य स्थान उसे अतिक्रम करने के बाद ही है, यहीं बताना उसका कर्तव्य है।
4. फूलों या पैड़ों से हमें जीवन की निरंतरता की प्रेरणा मिलती है। कला की कोई सीमा नहीं होती। पुष्य या पेड़ अपने सौंदर्य से यह बताते हैं कि यह सौंदर्य अंतिम नहीं है। इससे भी अधिक सुंदर हो सकता है।
प्रश्न 8:
शिरीष तरु सचमुच पक्के अवधूत की भाँति मेरे मन में ऐसी तरंगें जगा देता है जो ऊपर की ओर उठती रहती हैं। इस चिलकती धूप में इतना सरस वह कैसे बना रहता है? क्या ये बाह्य परिवर्तन-धूप, वर्षा, आँधी, लू-अपने आपमें सत्य नहीं हैं? हमारे देश के ऊपर से जो यह मार-काट, अग्निदाह, लूट-पाट, खून-खच्चर का बवंडर बह गया है, उसके भीतर भी क्या स्थिर रहा जा सकता है? शिरीष रह सका है। अपने देश का एक बूढ़ा रह सका था। क्यों मेरा मन पूछता है कि ऐसा वयों संभव हुआ है? क्योंकि शिरीष भी अवधूत है।
प्रश्न
1. शिरीष के वृक्ष की तुलना अवधूत से क्यों की गई है? यह वृक्ष लेखक में किस प्रकार की भावना जगाता है ?
2. चिलकती धूप में भी सरस रहने वाला शिरीष हमें क्या प्रेरणा दे रहा हैं?
3. गद्यांश में देश के ऊपर के किस बवंडर के गुजरने की ओर संकेत किया गया है?
4, अपने देश का एक बूढ़ा कौन था ? उस बूढे और शिरीष में समानता का आधार लेखक के क्या मन है ?
उत्तर -
1. अवधूत से तात्पर्य अनासक्त योगी से है। जिस तरह योगी कठिन परिस्थितियों में भी मस्त रहता है, उसी प्रकार शिरीष का वृक्ष भयंकर गर्मी, उमस में भी फुला रहता है। यह वृक्ष मनुष्य को हर परिस्थिति में संघर्षशील, जुझारू बनने की भावना जगाता है।
2. चिलकती धूप में भी सरस रहने वाला शिरीष हमें प्रेरणा देता है कि जीवन में कभी हार नहीं माननी चाहिए तथा हर परिस्थिति में मस्त रहना चाहिए।
3. इस गद्यांश में देश के ऊपर से सांप्रदायिक दंगों, खून-खराबा, मार-पीट, लूटपाट रूपी बवंडर के गुजरने की ओर संकेत किया गया है।
4, अपने देश का एक बूढ़ा महात्मा गांधी है। दोनों में गजब की सहनशक्ति है। दोनों ही कठिन परिस्थितियों में समभाव रहते हैं। इसी कारण दोनों समान हैं।
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