श्रम-विभाजन और जाति प्रथा (पठित गद्यांश)

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क) श्रम-विभाजन और जाति प्रथा (पठित गद्यांश)






निम्नलिखित गदयांशों को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए -
प्रश्न 1:

यह विडंबना की ही बात है कि इस युग में भी जातिवाद के पोषकों की कमी नहीं है। इसके पोषक कई आधारों पर इसका समर्थन करते हैं। समर्थन का एक आधार यह कहा जाता है कि आधुनिक सभ्य समाज 'कार्य-कुशलता' के लिए श्रम-विभाजन को आवश्यक मानता है, और चूँकि जाति-प्रथा भी श्रम-विभाजन का ही दूसरा रूप है इसलिए इसमें कोई बुराई नहीं है। इस तर्क के संबंध में पहली बात तो यहीं आपत्तिजनक है कि जाति-प्रथा श्रम-विभाजन के साथ-साथ श्रमिक-विभाजन का भी रूप लिए हुए है।

प्रश्न:
1. लेखक किस विडंबना की बात कह रहा हैं?
2 जातिवाद के पोषक अपने समर्थन में क्या तर्क देते हैं?
3 लेखक क्या आपत्ति दर्ज कर रहा है।
4. लेखक किन पर व्यंग्य कर रहा हैं?

उत्तर-
1. लेखक कह रहा है कि आधुनिक युग में कुछ लोग जातिवाद के पोषक हैं। वे इसे बुराई नहीं मानते। इस प्रवृत्ति को वह विडंबना कहता है।

2 जातिवाद के पोषक अपने मत के समर्थन में कहते हैं कि आधुनिक सभ्य समाज में कार्य कुशलता के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक माना गया है। जाति प्रथा भी श्रम विभाजन का दूसरा रूप है। अतः इसमें कोई बुराई नहीं है।

3. लेखक जातिवाद के पोषक के तर्क को सही नहीं मानता। वह कहता है कि जाति प्रथा केवल श्रम विभाजन ही नहीं करती। यह श्रमिक विभाजन का भी रूप लिए हुए है। श्रम-विभाजन और श्रमिक-विभाजन दोनों में अंतर है।

4 लेखक आधुनिक युग में जाति-प्रथा के समर्थकों पर व्यंग्य कर रहा है।

प्रश्न 2:

श्रम-विभाजन निश्चय ही सभ्य समाज की आवश्यकता है, परंतु किसी भी सभ्य समाज में श्रम-विभाजन की व्यवस्था श्रमिकों का विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक विभाजन नहीं करती। भारत की जाति-प्रथा की एक और विशेषता यह है कि यह श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन ही नहीं करती बल्कि विभाजित विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार देती है, जो कि विश्व के किसी भी समाज में नहीं पाया जाता।

प्रश्न:
1. श्रम-विभाजन के विषय में लेखक क्या कहता हैं?
2 भारत की जाति - प्रथा की क्या विशेषता है?
3 श्रम-विभाजन व श्रमिक-विभाजन में क्या अंतर हैं?
4. विश्व के अन्य समाज में क्या नहीं पाया जाता?

उत्तर -
1. श्रम-विभाजन के विषय में लेखक कहता है कि आधुनिक समाज में श्रम-विभाजन आवश्यक है, परंतु कोई भी सभ्य समाज श्रमिकों का विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक विभाजन नहीं करता।

2. भारत की जाति-प्रथा श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन तो करती ही है, साथ ही वह इन वर्गों को एक-दूसरे से ऊँचा-नीचा भी घोषित करती है।

3 ‘श्रम-विभाजन' का अर्थ है-अलग-अलग व्यवसायों का वर्गीकरण। 'श्रमिक-विभाजन' का अर्थ है-जन्म के आधार पर व्यक्ति का व्यवसाय व स्तर निश्चित कर देना।

4. विश्व के अन्य समाज में श्रमिकों के विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे से नीचा नहीं दिखाया जाता।

प्रश्न 3:

जाति-प्रथा पेशे का दोषपूर्ण पूर्वनिर्धारण ही नहीं करती बल्कि मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे में बाँध भी देती है। भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण वह भूखों मर जाए। आधुनिक युग में यह स्थिति प्राय: आती है, क्योंकि उद्योग-धंधों की प्रक्रिया व तकनीक में निरंतर विकास और कभी-कभी अकस्मात परिवर्तन हो जाता है, जिसके कारण मनुष्य को अपना पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है और यदि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मनुष्य को अपना पेशा बदलने की स्वतंत्रता न हो तो इसके लिए भूखों मरने के अलावा क्या चारा रह जाता है? हिंदू धर्म की जाति-प्रथा किसी भी व्यक्ति को ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती है, जो उसका पैतृक पेशा न हो, भले ही वह उसमें पारंगत हो। इस प्रकार पेशा-परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति-प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख व प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है।

प्रश्न:
1, जाति-प्रथा किसका पूर्वनिर्धारण करती हैं? उसका क्या दुष्परिणाम होता है?
2. आधुनिक युग में पेशा बदलने की जरूरत क्यों पड़ती हैं?
3. पेशा बदलने की स्वतंत्रता न होने से क्या परिणाम होता हैं?
4. हिन्दू धर्म की क्या स्थिति है ?

उत्तर -
1. जाति-प्रथा पेशे का दोषपूर्ण पूर्वनिर्धारण करती है। वह मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे से बाँध देती है। पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण व्यक्ति को भूखा मरना पड़ सकता है।

2. आधुनिक युग में उद्योग-धंधों का स्वरूप बदलता रहता है। तकनीक के विकास से किसी भी व्यवसाय का रूप बदल जाता है। इस कारण व्यक्ति को अपना पेशा बदलना पड़ सकता है।

3. तकनीक व विकास-प्रक्रिया के कारण उद्योगों का स्वरूप बदल जाता है। इस कारण व्यक्ति को अपना व्यवसाय बदलना पड़ता है। यदि उसे अपना पेशा बदलने की स्वतंत्रता न हो तो उसे भूखा ही मरना पड़ेगा।

4. हिंदू धर्म में जाति-प्रथा दूषित है। वह किसी भी व्यक्ति को ऐसा पेशा चुनने की आजादी नहीं देती जो उसका पैतृक पेशा न हो, भले ही वह उसमें पारंगत हो।

(ख) मेरी कल्पना का आदर्श समाज


प्रश्न 4:

फिर मेरी दृष्टि में आदर्श समाज क्या है? ठीक है, यदि ऐसा पूछेगे, तो मेरा उत्तर होगा कि मेरा आदर्श समाज स्वतंत्रता, समता, भ्रातृता पर आधारित होगा? क्या यह ठीक नहीं है, भ्रातृता अर्थात भाईचारे में किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? किसी भी आदर्श समाज में इतनी गतिशीलता होनी चाहिए जिससे कोई भी वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे तक संचारित हो सके। ऐसे समाज के बहुविधि हितों में सबका भाग होना चाहिए तथा सबको उनकी रक्षा के प्रति सजग रहना चाहिए। सामाजिक जीवन में अबाध संपर्क के अनेक साधन व अवसर उपलब्ध रहने चाहिए। तात्पर्य यह कि दूध-पानी के मिश्रण की तरह भाईचारे का यही वास्तविक रूप है, और इसी का दूसरा नाम लोकतंत्र है।

प्रश्न:
1. लेखक ने किन विशेषताओं को आदर्श समाज की धुरी माना हैं और क्यों?
2. भ्रातृता के स्वरूप को स्पष्ट कीजिए।
3. 'अबाध संपर्क' से लेखक का क्या अभिप्राय है?
4. लोकतंत्र का वास्तविक स्वरूप किसे कहा गया हैं? स्पष्ट कीजिए।

उत्तर -
1. लेखक उस समाज को आदर्श मानता है जिसमें स्वतंत्रता, समानता व भाईचारा हो। उसमें इतनी गतिशीलता हो कि सभी लोग एकसाथ सभी परिवर्तनों को ग्रहण कर सकें। ऐसे समाज में सभी के सामूहिक हित होने चाहिएँ तथा सबको सबकी रक्षा के प्रति सजग रहना चाहिए।

2. 'भ्रातृता' का अर्थ है-भाईचारा। लेखक ऐसा भाईचारा चाहता है जिसमें बाधा न हो। सभी सामूहिक रूप से एक-दूसरे के हितों को समझे तथा एक-दूसरे की रक्षा करें।

3. 'अबाध संपर्क' का अर्थ है-बिना बाधा के संपर्क। इन संपर्को में साधन व अवसर सबको मिलने चाहिए।

4. लोकतंत्र का वास्तविक स्वरूप भाईचारा है। यह दूध-पानी के मिश्रण की तरह होता है। इसमें उदारता होती है।

प्रश्न 5:

जाति-प्रथा के पोषक जीवन, शारीरिक-सुरक्षा तथा संपत्ति के अधिकार की स्वतंत्रता को तो स्वीकार कर लेंगे, परंतु मनुष्य के सक्षम एवं प्रभावशाली प्रयोग की स्वतंत्रता देने के लिए जल्दी तैयार नहीं होंगे, क्योंकि इस प्रकार की स्वतंत्रता का अर्थ होगा अपना व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता किसी को नहीं है, तो उसका अर्थ उसे ‘दासता' में जकड़कर रखना होगा, क्योंकि 'दासता’ केवल कानूनी पराधीनता को नहीं कहा जा सकता। 'दासता' में वह स्थिति भी सम्मिलित है जिससे कुछ व्यक्तियों को दूसरे लोगों के द्वारा निर्धारित व्यवहार एवं कर्तव्यों का पालन करने के लिए विवश होना पड़ता है। यह स्थिति कानूनी पराधीनता न होने पर भी पाई जा सकती है। उदाहरणार्थ, जाति-प्रथा की तरह ऐसे वर्ग होना संभव है, जहाँ कुछ लोगों की अपनी इच्छा के विरुद्ध पेशे अपनाने पड़ते हैं।

प्रश्न:
1. लेखक के अनुसार जाति-प्रथा के समर्थक किन अधिकारों को देने के लिए राजी हो सकते हैं और किन्हें नहीं?
2. 'दासता के दो लक्षण स्पष्ट कीजिए।
3. व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता न दिए जाने पर लेखक ने क्या संभावना व्यक्त की हैं? स्पष्ट कीजिए।
4. 'जाति-प्रथा की तरह ऐसे वर्ण होना' से आंबेडकर का क्या आशय हैं?

उत्तर -
1. लेखक के अनुसार, जाति-प्रथा के समर्थक जीवन, शारीरिक सुरक्षा व संपत्ति के अधिकार को देने के लिए राजी हो सकते हैं, किंतु मनुष्य के सक्षम व प्रभावशाली प्रयोग की स्वतंत्रता देने के लिए तैयार नहीं हैं।

2. 'दासता के दो लक्षण हैं-पहला लक्षण कानूनी है। दूसरा लक्षण वह है जिसमें कुछ व्यक्तियों को दूसरे लोगों द्वारा निर्धारित व्यवहार व कर्तव्यों का पालन करने के लिए विवश किया जाता है।

3. व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता न दिए जाने पर लेखक यह संभावना व्यक्त करता है कि समाज उन लोगों को दासता में जकड़कर रखना चाहता है।

4. इसका आशय यह है कि समाज में अनेक ऐसे वर्ग हैं जो अपनी इच्छा के विरुद्ध थोपे गए व्यवसाय करते हैं। वे चाहे कितने ही योग्य हों, उन्हें परंपरागत व्यवसाय करने पड़ते हैं।

प्रश्न 6:

व्यक्ति विशेष के दृष्टिकोण से, असमान प्रयत्न के कारण, असमान व्यवहार को अनुचित नहीं कहा जा सकता। साथ ही प्रत्येक व्यक्ति को अपनी क्षमता का विकास करने का पूरा प्रोत्साहन देना सर्वथा उचित है। परंतु यदि मनुष्य प्रथम दो बातों में असमान है तो क्या इस आधार पर उनके साथ भिन्न व्यवहार उचित हैं? उत्तम व्यवहार के हक की प्रतियोगिता में वे लोग निश्चय ही बाजी मार ले जाएँगे, जिन्हें उत्तम कुल, शिक्षा, पारिवारिक ख्याति, पैतृक संपदा तथा व्यावसायिक प्रतिष्ठा का लाभ प्राप्त है। इस प्रकार पूर्ण सुविधा संपन्नों को ही 'उत्तम व्यवहार' का हकदार माना जाना वास्तव में निष्पक्ष निर्णय नहीं कहा जा सकता। क्योंकि यह सुविधा-संपन्नों के पक्ष में निर्णय देना होगा। अतः न्याय का तकाजा यह है कि जहाँ हम तीसरे (प्रयास की असमानता, जो मनुष्यों के अपने वश की बात है) आधार पर मनुष्यों के साथ असमान व्यवहार को उचित ठहराते हैं, वहाँ प्रथम दो आधारों (जो मनुष्य के अपने वश की बातें नहीं हैं, पर उनके साथ असमान व्यवहार नितांत अनुचित है। और हमें ऐसे व्यक्तियों के साथ यथासंभव समान व्यवहार करना चाहिए। दूसरे शब्दों में, समाज को यदि अपने सदस्यों से अधिकतम उपयोगिता प्राप्त करनी है, तो यह तो संभव है, जब समाज के सदस्यों को आरंभ से ही समान अवसर एवं समान व्यवहार उपलब्ध कराए जाएँ।

प्रश्नः
1. लेखक किस असमान व्यवहार को अनुचित नहीं मानता ?
2. लेखक किस बात को निष्पक्ष निर्णय नहीं मानता?
3. न्याय का तकाजा क्या हैं?
4. समाज अपने सदस्यों से अधिकतम उपयोगिता कैसे प्राप्त कर सकता हैं?

उत्तर -
1. लेखक उस असमान व्यवहार को अनुचित नहीं मानता जो व्यक्ति विशेष के दृष्टिकोण से असमान प्रयत्न के कारण किया जाता है।

2. लेखक कहता है कि उत्तम व्यवहार प्रतियोगिता में उच्च वर्ग बाजी मार जाता है क्योंकि उसे शिक्षा, पारिवारिक ख्याति, पैतृक संपदा व व्यावसायिक प्रतिष्ठा का लाभ प्राप्त है। ऐसे में उच्च वर्ग को उत्तम व्यवहार का हकदार माना जाना निष्पक्ष निर्णय नहीं है।

3. न्याय का तकाजा यह है कि व्यक्ति के साथ वंश परंपरा व सामाजिक उत्तराधिकार के आधार पर असमान व्यवहार न करके समान व्यवहार करना चाहिए।

4. समाज अपने सदस्यों से अधिकतम उपयोगिता तभी प्राप्त कर सकता है जब समाज के सदस्यों को आरंभ से ही समान अवसर व समान व्यवहार उपलब्ध कराए जाएँगे।


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